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________________ 4 . . मृत्यु की दस्तक प्रयास किया गया है। प्रस्तुत आठों लेख धर्म, ग्रन्थ और धर्माचार प्रवर्तकों के विचार पर आधारित हैं। वीरशैव धर्म (लिंगायत सम्प्रदाय) के आचार्य श्री चन्द्रशेखर महास्वामी जी ने शैव सिद्धांत के आधार पर मृत्यु की व्याख्या की है। वीरशैव के प्रमुख ग्रंथ श्री सिद्धांतशिखामणि के अनुसार जीव के जन्म और मरण की निरन्तर आवृत्ति ही संसार-चक्र है। षडविधा विकारों से जीव निरन्तर चलायमान होता रहता है। स्कन्द पुराण में भी उल्लेख है कि जीवात्मा को अपने प्रारब्ध कर्म के भोग के लिये चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करना पड़ता है। प्रारब्ध कर्म का क्षय होते ही जीवात्मा शरीर का त्याग करता है, जिसे मरण कहते हैं। अट्ठाइस शैवागमों पर आधारित वीरशैव सिद्धांत पारमेश्वरागम में पुनर्जन्म का निषेध है। एक सौ एक स्थलात्मक साधना द्वारा साधक परशिव ब्रह्मा के साथ समरसता अनुभव करने लगता है, जिसके फलस्वरूप वह जीवनमुक्त हो जाता है। इस प्रकार साधक का पुनर्जन्म नहीं होता। श्री रामशंकर त्रिपाठी ने बौद्ध दृष्टि में मृत्यु की अवधारणा का सांगोपांग वर्णन प्रस्तुत किया है। आत्मा और आत्मीय के अस्तित्व को नकारते हुए उन्होंने मरण के भेद एवं मृत्यु के कारणों (आयुःक्षय, कर्मक्षय, उपभयक्षय एवं उपच्छेदक कर्म) की विषद् चर्चा की है। लेख के अन्त में, मृत्यु के समय होने वाले किसी भी प्रकार के भय एवं कष्ट से मुक्ति के लिये मरणानुस्मृति की भावना करने का निर्देश एवं भावना विधि का उल्लेख किया गया है। सुश्री मुन्नी पुष्पा जैन ने जैन धर्म में मृत्यु महोत्सव की चर्चा की है। इसमें शरीर त्याग जैसे अटल सत्य के तीन भेद किये गये हैं - (1) च्युत - आयु पूर्ण होने पर शरीर छूटना, (2) व्यक्ति विषय क्षण - निमित्त कारणों से शरीर छोड़ना अर्थात् आत्मघात, और (3) त्यक्त - विवेक सहित संन्यासस्य परिणामों से शरीर छोड़ना। इनमें त्यक्त' को ही सल्लेखनापूर्वक मरण कहते हैं। जीवन जीना ही कला नहीं, मृत्यु के क्षणों में विवेकपूर्वक स्वयं को सम्भाले हुए धर्म के साथ मरना उससे भी बड़ी कला है। जैन शास्त्रों में सल्लेखना द्वारा समाधिमरण को शाश्वत् सुख देने वाला कल्पवृक्ष के समान बताया गया है। इसमें जीवन का मोह, मरण का भय दोनों समाप्त हो जाते हैं। लेखिका ने सल्लेखना के साधक की मानसिक तैयारी तथा पुण्य यज्ञ में सहायकों की महत्ता पर प्रकाश डाला है। श्री अनेकान्त जैन ने जैन धर्म द्वारा स्वीकृत मृत्यु के स्वेच्छाकरण के संप्रत्यय संथारा अथवा सल्लेखना पर प्रकाश डाला है। मृत्यु अवश्यमभावी है। धैर्यवान, अधैर्यवान दोनों को मरना है। शीलवान भी मृत्यु को प्राप्त होंगे और अशीलवान भी / मृत्यु की अवश्यमभावी स्थिति में धैर्य और शीलपूर्वक मृत्यु का वरण करना सल्लेखना का वैचारिक आधार है। आत्मा को दुःख देने वाले चार कषायों (क्रोध, मान, माया, और लोभ) का क्षरण करना सल्लेखना का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है। अतः सल्लेखना द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना एक धार्मिक साधना है। जैन धर्म ने उपसर्ग, दुर्भिक्ष, ज़रा अथवा रूग्ण स्थिति में (जब मृत्यु प्रतिकाररहित और
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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