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________________ मृत्यु का कर्मकाण्ड 117 पत्नी को था। बौधायन ने इस क्रिया हेतु एक मंत्र का उल्लेख किया है जिसका अभिप्राय है - “यहाँ से उठो और नवीन स्वरूप धारण करो, अपने देह के किसी भी अवयव को न छोड़ो। तुम किसी भी लोक को जाना चाहो, जाओ। सविता तुम्हें स्थापित करें, यह तुम्हारी एक अस्थि है, तुम ऐश्वर्य में तृतीय से युक्त हो, सम्पूर्ण अस्थियों से युक्त होकर सुन्दर बनो, तुम देवों के लिये प्रिय बनो।" इस श्लोक में अस्थि संचयन का प्रयोजन स्पष्ट हुआ है। तत्कालीन प्रथानुसार अस्थियों का प्रक्षालन कर एक पात्र में रख शमी वृक्ष की शाखा से लटका दिया जाता था। आश्वलायन स्त्रियों के लिये छिद्रयुक्त पात्र तथा पुरुषों के लिये बिना छिद्र के पात्र का विधान करते हैं। सूत्र-युग के बाद इस पद्धति में आमूल परिवर्तन हो गया। नदियों की पवित्रता बढ़ गयी। दाह-संस्कार सामान्यतः नदियों के तट पर होने लगे। इसी क्रम में वर्तमान में दाह-क्रिया करने वाला व्यक्ति दाह के तत्काल पश्चात् अवशेषों को जल में प्रवाहित कर देता है अथवा किसी एकांत ऊसर में डाल देता है। श्मशान - पितृमेध या श्मशान अर्थात् मृतक के अवशेषों पर समाधि निर्माण करना भी अन्त्येष्टि-संस्कार के अन्तर्गत माना जाता है। वर्तमान में ईसाई एवं इस्लाम धर्म में मृतक के शरीर पर सामर्थ्यानुसार समाधि अथवा मकबरे का निर्माण करने की परम्परा है। समाधि निर्माण का उल्लेख वेदों में नहीं मिलता। परन्तु यह इस प्रथा के अप्रचलित होने का प्रमाण नहीं है, क्योंकि कर्मकाण्ड के प्रमुख ग्रन्थ "ब्राह्मण” में इसका विवरण मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में इसका विस्तार से उल्लेख किया गया है। समकालीन सभी गृह्य-सूत्रों में इसका उल्लेख न होने से ऐसा प्रतीत होता है कि समाधि निर्माण की प्रथा सभी स्थानों में प्रचलित नहीं थी। शास्त्रकारों ने यह सम्मान महान् सिद्ध महात्माओं तथा संन्यासियों के लिये विशेष रूप से सुरक्षित किया है। आधुनिक हिन्दू समाज में यह परम्परा सामान्यतः लुप्त है। समाधि निर्माण किसके लिये, किस समय तथा किस स्थान पर की जाए, इन विषयों पर अनेक मतभेद हैं। मृत्यु के पश्चात् वर्ष के ऋतु, अधिष्ठाता नक्षत्र, इत्यादि को ध्यान में रखा जाता है। इनमें भी शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को प्रधान माना गया है। समाधि निर्माण के लिये स्थान का चुनाव कर एक दिन पूर्व कुछ पौधे लगा दिये जाते हैं। पौधे से उत्तर दिशा में भूमि खोद देते हैं तथा निकली हुई मिट्टी से 600 से लेकर 2400 तक ईंटें बनायी जाती हैं। भस्मावशेष का पात्र भूमि पर पलाश की तीन टहनियों के बीच रख उस पर एक झोंपड़ी का निर्माण कर दिया जाता है। वाद्ययंत्रों
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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