________________ 178 ] [ श्रीमदागमसुधासिन्धुः :: प्रथमो विमागः // अथ द्वादशं श्रीसमवसरणाध्ययनम् // ___चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावाया जाई पुढो वयंति / किरियं अकिरियं विणियंति तइयं, अन्नाणमाहंसु उत्थमेव // 1 // श्ररणाणिया ता कुसलावि संता, असंथुया णो वितिगिच्छतिना। अकोविया बाहु अकोवियेहिं, अणाणुवीइत्तु मुसं वयंति // 2 // सच्चं असच्चं इति चिंतयंता, असाहु साहुत्ति उदाहरंता। जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुढावि भावं विणइंसु णाम // 3 // अणोवसंखा इति ते उदाहू, अढे स प्रोभासइ अम्ह . एवं / लवावसंकी य श्रणागएहिं, णो किरियमाहंसु अकिरियवादी // 4 // सम्मिस्तभावं च गिरा गहीए, से मुम्मुई होइ प्रणाणुवाई / इमं दुपक्खं इमोगपक्वं, श्राहंसु छलायतणं च कम्मं // 5 // ते एवमक्खंति अबुज्ममाणा, विरूवख्वाणि अकिरियवाई। जे मायइना बहवे मणूमा, भमंति संसारमणोवदग्गं ॥६॥णान्चो उएइ ण अत्थमेति, ण चंदिमा वड्डति हायती वा / सलिला ण संदंति ण वंति वाया, वंझो णियतो कसिणे हु लोए // 7 // जहाहि अंधे सह जोतिणावि, रूवाई णो पस्सति हीणोत्ते। संतंपि ते एवमकिरियवाई, किरियं ण पस्संति निरुद्धपन्ना // संवच्छर सुविणं लक्खणं च, निमित्तदेहं च उप्पाइयं च / अटुंगमेयं बहवे अहित्ता, लोगंसि जाणंति प्रणागताई // 6 // केई निमित्ता तहिया भवंति, केसिंचि तं विष्पडिएति णाणं (माण) / ते विजभावं अणहिजमाणा, याहंसु विजापरिमो. क्खमेव (जाणामु लोगंसि वयंति मंदा)॥१०॥ ते एवमक्खंति समिञ्च लोगं, तहा तहा (गया)समणा माहणा य / सयं कर्ड गन्नकर्ड च दुक्खं, याहंसु विजाचरणं पमोक्खं // 11 // ते चाखु लोगसिह णायगा उ, मग्गाणुसासंति हितं पयाणं / तहा तहा सासयमाहु लोए, जंसी पया माणव ! संपगाढा // 12 // जे रक्खमा वा जमलोइया वा, जे वा सुरा गंधव्वा य काया / श्रागास