________________ श्री आचाराङ्गसूत्रम् :: श्रुतस्कंधः 1 अध्ययनं 2 ] [ 17 // अध्ययनं-३ : उद्देशकः-२ // जाई च बुद्धिं च इहऽज ! पासे, भूएहिं जाणे पडिलेहसायं // तम्हातिविज्जे परमंति णाचा, संमत्तदंसी न करेइ पावं // 1 // उम्मुच पास इह मच्चिएहिं, ग्रारंभजीवी उभयाणुपस्सी / कामेसु गिद्धा निचयं करति, संसिचमाणा पुणरिंति गभं // 2 // अवि से हासमासज्ज, हंता नंदीति मन्नइ / / अलं बालस्स संगेण, वेरं वड्ढेइ अप्पणो // 3 // तम्हातिविज्जो परमंति णचा, यायंकदंसी न करेइ पावं // अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिच्छिदिया णं निकमदंसी // 4 // एस मरणा पमुच्चइ, से हु दिट्ठभए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिए सहिए सयाजए कालकंखी परिवए, बहुच खलु पावं कम्मं पगडं ॥सू० 111 // सिञ्चमि धिई कुव्वहा, एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं जोसइ ॥सू० 112 // अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरिगणए, से अण्णवहाए अण्णपरियावाए गएणपरिग्गहाए, जणवयवहाए जणवयपरियावाए जणवयपरिग्गहाए ॥सू० 113 // यासेवित्ता एतं(वं) अट्ठ इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवे, निस्सारं पासिय नाणी, उववायं चवणं णचा अणगणं चर माहणे से न छणे न छणावए छणतं नाणुजाणइ, निव्दि नंदि, अरए पयासु, अणोमदंसी निसराणे पावेहिं कम्मेहिं ॥सू० 114 // कोहाइमाणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे निरयं महतं // तन्हा य(हि) वीरे विरए वहायो, बिंदिज सोयं लहुभूयगामी // 1 // गंथं परिगणाय इहज ! धीरे, सोयं परिगणाय चरिज दंते // उम्मज लद्भुइह माणवेहिं, नो पाणिणं पाणे समारभिज्जा सि // 2 // ति बेमि // // इति द्वितीय उद्देशकः // 3-2 / /