________________ 12 तावन्मात्रेण भुक्तेन किन्तु तस्य गुणो महान् / कृतस्त्रयेण 2 ते रोगा, आनीता७३ तेन याप्यताम्७४ // 44 // तथाप्यात्मज्ञताऽभावादुल्बणत्वादपथ्यतः७५ / क्वचिद्विकारमात्मीयं दशर्यन्ति शरीरके // 45 // क्वचिच्छूलं क्वचिद्दाहः, क्वचिन्मूर्छा क्वचिज्ज्वरः / क्वचिच्छदि क्वचिज्जाड, क्वचिद् हृत्पार्श्ववेदना // 46 // क्वचिदुन्मादसन्तापः, पथ्ये क्वचिदरोचकः। तै रोगैर्विक्रियापनैः, शरीरस्य प्रजायते // 47 // युग्मम् // कदाचित्तद्दया दृष्ट्वा, तं विकारैरूपद्रतम् / आक्रन्दन्तं कृपोपेता, संचिन्त्येत्थमभाषत // 48 // कथितं तात ! तातेन, यदन्नं तव वल्लभम् / एतनिमित्तकाः सर्वे, रोगास्तव शरीरके // 49 // तथापि दृष्टवृत्तान्ता, मा भूदाकुलता तव / तद् भक्षयन्तं दृष्ट्वाऽपि, भवन्तं नैव वारये // 50 // परमस्वास्थ्यहेतौ ते, शैथिल्यं भेषजत्रये / एतत्तु रोचते तुभ्यं, सर्वसन्तापकारणम् // 51 // अधुना क्रन्दतो नास्ति, हेतुः स्वास्थ्यस्य कारकः / अपथ्येऽत्यथै सक्तानां, न लगत्येव भेषजम् // 52 // अपवादो ममाप्यत्र, यतस्ते परिचारिका / प्रत्यहं न च शक्नोमि, कर्तुं स्वास्थ्यं तवाधुना // 53 // इतरः प्राह यद्येवं, वारणीयस्त्वयाऽमुतः। अभिलाषातिरेकेण, न त्यक्तुं स्वयमुत्सहे // 54 // कदाचित्त्वत्प्रभावेण, स्तोकस्तोकं विमुञ्चतः। सर्वत्यागेऽपि शक्तिर्मे, कदन्नस्य भविष्यति // 55 // . साधु साधूदितं भद्र७६ !, युक्तमेतद् भवादृशाम् / इत्युक्त्वाऽधिकमश्नन्तं सा कदनं न्यवारयत् // 56 // ततस्तत्परिहारेण, रोगा यान्त्यस्य तानवम् / न जायतेऽधिका पीडा, लगत्यङ्गे७७ च भेषजम् // 57 // केवलं सा यदाऽभ्यणे, तदा पथ्येन तिष्ठति / अपथ्यमल्पमश्नाति जायते तेन याप्यता७८ // 58 // यदा तु सा विदूरस्था, लाम्पटयात्तत्कदन्नकम् / भूरि निर्भेषजं सोऽत्ति, तेनाजीर्णेन७९ पीड्यते // 59 // इतश्च तद्दया तेन, धर्मबोधकरण सा / प्रागेवाशेषलोकस्य, पालकत्वे नियोजिता // 60 // साऽनन्तसत्वसङ्घातव्यापारकरणोद्यता / तन्मूले क्वचिदेवाऽऽस्ते, शेषकालं स८० मुत्कलः // 6 // अपथ्यभक्षणाऽऽसक्तः, स केनचिदवारितः / विकारैर्वाध्यते भूयस्ते दरास्ते च मेण्ढकाः // 62 // तहयापरि- कदाचित्पीडितो दृष्टो, धर्मबोधकरण सः / सोऽवादीत् किमिदं भद्र !, स चाशेषं न्यवेदयत् // 63 // चारणा इयं हि तद्दया नित्यं, न मत्पार्श्वेऽवतिष्ठते / तद्वैकल्याच मे रोगाः, प्रभवन्ति विशेषतः // 64 // 363-381 तस्मानाथास्तथा यूयं, कुरुध्वं यत्नमुत्तमम् / यथा पीडा न मे देहे, स्वमान्तेऽप्युपजायते // 65 // स प्राह वत्स ! ते पीडा, जायतेऽपथ्यसेवनात् / इयं तु तद्दया व्यग्रा, कर्मान्तरनियोगतः // 66 // या वारणं विधत्ते ते, सदैवापथ्यमश्नतः / यदि स्यात्तादृशी काचित् , क्रियते परिचारिका // 67 // केवलं त्वमनात्मज्ञः, पथ्यसेवापराङ्मुखः / कदनभक्षणोद्युक्तस्तस्य किं करवाणि ते ? // 68 // इतरस्त्वाह मा मैवं, नाथा ! वदत साम्प्रतम् / नैवाहं युष्मदादेशं, लङ्घयामि कथश्चन // 69 // तदाकर्ण्य मनाग् ध्यात्वा, क्षणमात्रमवोचत / धर्मबोधकरस्तस्मै, हितायोद्यतमानसः // 7 // अस्ति मे वचनायत्ता, सद्बुद्धिर्नाम दारिका / तां ते करोमि निर्व्यग्रां, विशेषपरिचारिकाम् // 71 // सा हि संनिहिता नित्यं, पथ्यापथ्यविवेचिका / तुभ्यमेव मया दत्ता, मा कार्षीश्चित्तवैक्लवम् // 72 // केवलं सा विशेषज्ञा, वैपरीत्यविधायिनाम् / अनादरवतां पुंसां, नोपकाराय वर्त्तते // 73 // यदि तेऽस्ति सुखाकाङ्क्षा, दुःखेभ्यो यदि ते भयम् / ततः सा वक्ति यत्किञ्चित् , कर्तुं युक्तं तदेव८१ ते 74 / एष एव ममादेशो, यत्तदादेशवर्तनम् / तस्य न रोचते यस्तु, नैव मह्यं स रोचते // 75 // 72 ततः 73 मेषजत्रयेण 74 वश्यताम् 75 अपथ्यस्य 76 वत्स प्र. 77 गुण विदधाति 78 यापना प्र. 7 कदन्नेन 80 रोरः 81 सदैव प्र.