________________ स्त्यम् सा क्लिष्टचित्तहेतुत्वात्पापसंबन्धकारिका / तेन दुर्गतिवर्त्तन्याः, प्रापणे प्रवणा मता // 27 // कामोपादानगर्भार्था वयोदाक्षिण्यसूचिका / अनुरागेगिताद्युत्था, कथा कामस्य वर्णिता // 28 // सा मलीमसकामेषु, रागोत्कर्षविधायिका / विपर्यासकरी तेन, हेतुभूतैव दुर्गतेः // 29 // दयादानक्षमायेषु, धर्माङ्गेषु प्रतिष्ठिता / धर्मोपादेयतागर्भा, बुधैर्धर्मकथोच्यते // 30 // सा शुद्धचित्तहेतुत्वात्पुण्यकर्मविनिर्जरे / विधत्ते तेन विज्ञेया, कारणं नाकमोक्षयोः // 31 // त्रिवर्गसाधनोपायप्रतिपादनतत्परा। याऽनेकरससारार्था, सा संकीर्णकथोच्यते // 32 // चित्राभिप्रायहेतुत्वादनेकफलदायिका। विदग्धताविधाने च सा हेतुरिव वर्तते // 33 // श्रोतारोऽपि चतुर्भेदास्तासां सन्तीह मानवाः। तेषां संक्षेपतो वक्ष्ये, लक्षणं तन्निबोधत // 34 // श्रोतृभेदाः मायाशोकभयक्रोधलोभमोहमदान्विताः। ये वाञ्छन्ति कथामार्थी, तामसास्ते * नराधमाः // 35 // 35-38 ये रागग्रस्तमनसो, विवेकविकला नराः / कथामिच्छन्ति कामस्य, राजसास्ते विमध्यमाः // 36 // मोक्षाकाङ्क्षकतानेन, चेतसाऽभिलषन्ति ये / शुद्धां धर्मकथामेव, सात्त्विकास्ते नरोत्तमाः // 37 // ये लोकद्वयसापेक्षाः, किश्चित्सत्त्वयुता नराः / कथामिच्छन्ति संकीर्णा, ज्ञेयास्ते वरमध्यमाः // 38 // कथाप्राश- तत्रैवं स्थिते-रजस्तमोऽनुगाः सत्त्वाः, स्वयमेवार्थकामयोः। रज्यन्ते धर्मशास्तारमवधूय निवारकम् // 39 / रागद्वेषमहामोहरूपं तेषां शिखित्रयम् / अर्थकामकथासर्पिराहुत्या वर्द्धते परम् // 40 // 39-54 केकायितं मयूराणां, यथोत्कण्टकवर्द्धनम् / पापेषु वर्द्धितोत्साहा, कथा कामार्थयोस्तथा // 41 // कथां कामार्थयोस्तस्मान कुर्वीत कदाचन / कः क्षते क्षारनिक्षेप, विदधीत विचक्षणः ? // 42 // परोपकारशीलेन, कर्त्तव्यं तन्मनीषिणा / हितं समस्तजन्तुभ्यो, येनेह स्यादमुत्र च // 43 // तेन यद्यपि लोकानामिष्टा कामार्थयोः कथा / तथाऽपि विदुषा त्याज्या, येन पर्यन्तदारुणा // 44 // तदेतदवगम्य-इहामुत्र च जन्तूनां, सर्वेषाममृतोपमाम् / शुद्धां धर्मकथां धन्याः, कुर्वन्ति हितकाम्यया॥४५॥ आक्षेपकारणी मत्वा, संकीर्णामपि सत्कथाम् / मार्गावतारकारित्वात्, केचिदिच्छन्ति सूरयः // 46 // किलात्र यो यथा जन्तुः, शक्यते बोधभाजनम् / कर्तुं तथैव तद्वोध्ये, विधेयो हितकारिभिः // 47 // न चादौ मुग्धबुद्धीनां, धर्मों मनसि भासते। कामार्थकथनात्तेन, तेषामाक्षिप्यते मनः // 48 // आक्षिप्तास्ते ततः शक्या, धर्म ग्राहयितुं नराः / विक्षेपद्वारतस्तेन, संकीर्णा सत्कथोच्यते // 49 // तस्मादेषा कथा शुद्धधर्मस्यैव विधास्यते / भजन्ती तद्गुणापेक्षा, क्वचित्संकीर्णरूपताम् // 50 // अन्यच्च–संस्कृता प्राकृता चेति, भाषे प्राधान्यमर्हतः। तत्रापि संस्कृता तावद्दुर्विदग्धहृदि स्थिता // 51 // बालानामपि सद्धोधकारिणी कर्णपेशला / तथापि प्राकृता. भाषा, न तेषामपि भासते // 52 // उपाये सति कर्त्तव्यं, सिर्वेषां चित्तरञ्जनम् / अतस्तदनुरोधेन, संस्कृतेयं करिष्यते // 53 // न चेयमतिगूढार्था, न दीर्वाक्यदण्डकैः / न चाप्रसिद्धपर्यायैस्तेन सर्वजनोचिता // 54 // अधिका- कथा शरीरमेतस्या, नाम्नैव प्रतिपादितम् / भवप्रपञ्चो व्याजेन यतोऽस्यामुपमीयते // 55 // रोद्देशः यतोऽनुभूयमानोऽपि, परोक्ष इव लक्ष्यते / अयं संसारविस्तारस्ततो व्याख्यानमर्हति // 56 // 55-77 अथवा–भ्रान्तिव्यामोहनाशाय, स्मृतिबीजप्रबोधनम् / कथार्थसंग्रहं कृत्वा, शरीरमिदमुच्यते // 57 // द्विविधेयं कथा तावदन्तरङ्गा तथेतरा / शरीरमन्तरङ्गायास्तत्रेदमभिधीयते // 58 // 1 धर्म प्राप्त्यानुकूल्येन 2 दुर्गमैरित्यध्याहार: