________________ श्रीसिद्धषिप्रणीता श्रीउपमितिभवप्रपञ्चा कथा / (जैनचम्पूकाव्यानि) ऐं नमः / नमो नि शिताशेषमहामोहहिमाये / लोकालोकामलालोकभास्वते परमात्मने // 1 // नमो विशुद्धधर्माय, स्वरूपपरिपूर्तये / नमो विकारविस्तारगोचरातीतमूर्तये // 2 // नमो भुवनसंतापिरागकेसरिदारिणे / प्रशमामृततृप्ताय नाभेयाय महात्मने // 3 // नमो द्वेषगजेन्द्रारिकुम्भनिर्भेदकारिणे / अजितादिजिनस्तोमसिंहाय विमलात्मने // 4 // नमो दलितदोषाय, मिथ्यादर्शनसूदिने / मकरध्वजनाशाय, वीराय विगतद्विषे // 5 // अथवा-अन्तरङ्गमहासैन्यं, समस्तजनतापकम् / दलितं लीलया येन, केनचित्तं नमाम्यहम् // 6 // समस्तवस्तुविस्तारविचारापारगोचरम् / वचो जैनेश्वरं वन्दे, सूदिताखिलकल्मषम् // 7 // मुखेन्दोरंशुभिर्व्याप्तं, या विभर्ति विकस्वरम् / करे पद्ममचिन्त्येन, धाम्ना तां नौमि देवताम् // 8 // परोपदेशप्रवणो, मादृशोऽपि प्रजायते / यत्प्रभावान्नमस्तेभ्यः, सद्गुरुभ्यो विशेषतः // 9 // इत्यं कृतनमस्कारः, शान्तविघ्नविनायकः / विवक्षितार्थप्रस्तावं, रचयिष्ये निराकुलः // 10 // इहातिदुर्लभं प्राप्य, मानुष्यं भव्यजन्तुना / ततः कुलादिसामग्रीमासाद्य शुभकर्मणा // 11 // हेयं हानोचितं सर्व, कर्त्तव्यं करणोचितम् / श्लाघ्य श्लाघोचितं वस्तु, श्रोतव्यं श्रवणोचितम् // 12 // युग्मम् तत्र—यत्किञ्चिच्चित्तमालिन्यकारणं मोक्षवारणम् / मनोवाक्कायकर्मेह, हेयं तत् स्वहितैषिणा // 13 // हारनीहारगोक्षीरकुन्देन्दुविशदं मनः। कृतं यत् कुरुते कर्म कर्त्तव्यं तन्मनीषिणा // 14 // श्लाघनीयः पुनर्नित्यं, विशुद्धनान्तरात्मना / त्रिलोकनाथ १-स्तद्धमों 2, ये च तत्र व्यवस्थिताः 3 // 15 // श्रोतव्यं भावतः सारं, श्रद्धासंशुद्धबुद्धिना / निःशेषदोषमोषाय, वचः सर्वज्ञभाषितम् // 16 // तदत्र प्रस्तुतं तावत्तदेव जगते हितम् / श्रोतव्यमिति संचिन्त्य, वचः सर्वज्ञभाषितम् // 17 // ततस्तदनुसारेण, महामोहादिसूदनी / निर्दिष्टभवविस्तारा, कथेयमभिधास्यते // 18 // तथाहि-पञ्चाश्रवमहादोषा, हृषीकाणां च पञ्चकम् / महामोहयुतानां च, कषायाणां चतुष्टयम् // 19 // मिथ्यात्वरागद्वेषादिरूपं यच्चान्तरं बलम् / तदोषावेदकं सर्व, वचः सर्वज्ञभाषितम् // 20 // युग्मम् // तथा--ज्ञानदर्शनचारित्रसंतोषप्रशमात्मकम् / तपःसंयमसत्यादिभटकोटिसमाकुलम् // 21 // यच्चान्तरं बलं तस्य, गुणसंभारगौरवम् / वर्णयत्येव जैनेन्द्र, वचनं हि पदे पदे // 22 // युग्मम् // तथा--एकेन्द्रियादिभेदेन, दुःखरूपमनन्तकम् / भवप्रपञ्चं जैनेन्द्र, वचनं कथयत्यलम् // 23 // अतस्तां भित्तिमाश्रित्य, मादृशेनापि जल्पितम् / वाक्यं जैनेन्द्रसिद्धान्तनिष्यन्द इति भाव्यताम् // 24 // इह च-अर्थ कामं च धर्म च, तथा संकीर्णरूपताम् / आश्रित्य वर्तते लोके, कथा तावच्चतुर्विधा // 25 // सामादिधातुवादादिकृष्यादिप्रतिपादिका / अर्थोपादानपरमा, कथाऽर्थस्य प्रकीर्तिता // 26 //