________________ __ प्रकर्षः प्राह-यद्येवं, ततः सुन्दरचेष्टिते / वरमेभिः कृतो यत्नो, न विषादस्य शासने // 65 // विमर्शेनाभिहितं-चारु चारूदितं वत्स ! केवलं मूढजन्तवः / इदमेते न जानन्ति, भवचक्रनिवासिनः॥६६॥ अन्यच्चात्र-कियन्ति संविधानानि, शृङ्गग्राहिकया तव / मया निवेदयिष्यन्ते नगरे पारवर्जिते ? // 67 // इतश्च-अस्य स्वरूपविज्ञाने, बलवत्ते कुतूहलम् / अतः समासतो वत्स !, तुभ्यमेतनिवेदये // 68 // आरूढः पर्वते तात! विवेकाख्येऽत्र निर्मले / इदं विलोकयत्येवं, रूपतः किं निवेद्यताम् // 69 // गुणतश्च पुनर्वत्स ! वर्ण्यमानं मया स्फुटम् / इदं यथावबुध्यस्व, भवचक्र, महापुरम् // 70 // अवान्तरपुरैर्वत्स ! भूरिभिः परिपूरितम् / यद्यपीदं तथाप्यत्र, श्रेष्ठं पुरचतुष्टयम् // 7 // एक हि मानवावासं, द्वितीयं विबुधालयम् / तृतीयं पशुसंस्थानं, चतुर्थ पापिपञ्जरम् // 72 // एतानि तानि चत्वारि, प्रधानानीह पत्तने / पुराणि व्यापकानीति, सर्वेषां मध्यवर्तिनाम् // 73 // तत्रेदं मानवावासं, महामोहादिभिः सदा / अन्तरङ्गजनैप्तिमेतैः कलकलाकुलम् // 74 / / कथम् ?-कचिदिष्टजनप्राप्तौ, तोषनिर्भरमानुषम् / कचिद्वेष्यजनासत्तेर्विमनीभूतदुर्जनम् // 5 // कचिद्धनलवावाप्तिजनितानन्दसुन्दरम् / कचिट्ठविणनाशोत्थबृहत्सन्तापतापितम् // 76 // कचिदुर्लभसत्सूनुजन्मोद्भुतमहोत्सवम् / कचिदत्यन्तचित्तेष्टमरणाक्रन्दगुन्दलम् // 77 // कचित्सुभटसङ्घातप्रारब्धरणभीषणम् / कचिन्मिलितसन्मित्रविमुक्तनयनोदकम् // 78 // कचिद्दारिद्यदौर्भाग्यविविधव्याधिपीडितम् / कचिच्छब्दादिसंभोगादलीकसुखनिर्भरम् // 79 // कचित्सन्मार्गदरस्थपापिष्ठजनपूरितम् / क्वचिच्च धर्मबुद्धयापि, विपरीतविचेष्टितम् // 8 // किं चेह बहुनोक्तेन ? चरितानि पुरा मया / यावन्ति वर्णितान्युच्चैमहामोहादिभूभुजाम् // 81 // तावन्ति वत्स ! दृश्यन्ते, सर्वाण्यत्र विशेषतः। सततं मानवावासे, कारणैरपरापरैः // 82 // तदिदं मानवावासं, किश्चिल्लेशेन वर्णितम् / अधुना कथ्यते तुभ्यं, सत्पुरं विबुधालयम् // 83 // नाकरूपमिदं ज्ञेयं, सत्पुरं विबुधालयम् / सत्पारिजातमन्दारसन्तानकवनाकुलम् // 84 // उल्लसद्भिश्च गन्धाढयैर्नमेरुहरिचन्दनैः / सदा विकसितै रम्यं, कहारकमलाकरैः // 85 // पद्मरागमहानीलवज्रवैडूर्यराशिभिः / दिव्यहाटकसम्मिौर्घटितानेकपाटकम् // 86 // प्रेसन्मणिप्रभाजालैः, सदा निर्नष्टतामसम् / विचित्ररत्नसङ्घातमयूखैः प्रविराजितम् // 87 // दिव्यभूषणसद्गन्धमाल्यसंभोगलालितम् / नित्यप्रमोदमुद्दामगीतनृत्यमनोहरम् // 88 // नित्यं प्रमुदितैर्दिव्यैस्तेजोनिर्जितभास्करैः / लसत्कुण्डलकेयूरमौलिहारविराजितैः // 89 // कलालिकुलझङ्कारहारिमन्दारदामभिः / अम्लानवनमालाभिनित्यमामोदिताशयैः // 90 // रतिसागरमध्यस्थैः, प्रीणितेन्द्रियसुस्थितैः / सदेदमीदृशैर्लोकः, पूरितं विबुधालयम् // 91 // षभिःकुलकम् यः पूर्व वेदनीयाख्यनृपतेः पुरुषो मया / साताभिधानस्ते भद्र !, कथितस्तत्र मण्डपे // 92 // स कर्मपरिणामेन, जनाहाद विधायकः / विहितो निखिलस्यास्य, पुरस्य वरनायकः // 93 / / युग्मम् ततस्तेन लसद्भोगं, सतताहादसुन्दरम् / इदं हि वत्स ! निःशेष, धार्यते विबुधालयम् // 14 // प्रकर्षे णोदितं माम ! महामोहादिभूभुजाम् / किमत्र प्रसरो नास्ति ? येनेदमतिसुन्दरम् // 15 // विमर्शः प्राह मा मैवं, मन्येथास्त्वं कथनन / प्रभवन्ति प्रकर्षेण, यतोऽत्रान्तरभूभुजः // 96 // इर्ष्याशोकभयक्रोधलोभमोहमदभ्रमैः / सतताकुलितं वत्स ! पुरं हि विबुधालयम् // 97 // प्रकर्षः प्राह यद्येवं, ततोऽत्र ननु किं सुखम् ? / किं वेदं हृष्टचिरोन, भवता चारु वर्णितम् // 98 //