________________ 224 यौवनं च मनुष्याणां, सन्ध्यारक्ताभ्रविभ्रमम् / चण्डवातेरिताम्भोदमालारूपाश्च सम्पदः // 578 // आदौ संपादिताहादाः, पर्यन्तेऽत्यन्तदारुणाः। एते शब्दादिसम्भोगाः किम्पाकफलसन्निभाः // 579 // माता भ्राता पिता भार्या, पुत्रो जातेति जन्तवः। जाताः सर्वेऽपि सर्वेषामनादिभवचक्रके // 580 // उषित्वैकतरौ रात्रौ, यथा प्रातर्विहङ्गमाः / यथायथं व्रजन्त्येव, कुटुम्बे विखबान्धवाः // 581 // इष्टैः समागमाः सर्वे, स्वमाप्तनिधिरूपताम् / नूनं समाचरन्त्येव, वियोगानलतापिनः // 582 // जरा जर्जरयत्येव, देहं सर्वशरीरिणाम् / दलयत्येव भूतानि, भीमो मृत्युमहीधरः // 583 // ततश्च तेषामेवंविधानेकभावनाभ्यासलासिनाम् / निर्धूततमसां पुंसां, निर्मलीभूतचेतसाम् // 584 // भद्र ! नैष महीपालो, महामोहः सभार्यकः / जायते बाधको नापि, सवधूकाविमौ मुतौ॥५८५॥युग्मम् / अन्यच्च-न शोको नारतिस्तेषां, न भयो नापि शेषकाः / दुष्टाभिसन्धिप्रमुखा, नूनं बाधाविधायकाः // 586 // नामृनि डिम्भरूपाणि, न चान्ये भद्र ! तादृशाः। यैरेवं भावनाशस्त्रैः, पिता पुत्रा अमी जिताः // 587 // युग्मम / तथा-सर्वज्ञागमतत्त्वेषु ये सन्ति सुविनिश्चिताः / ये पुनः सद्विचारेण, क्षालयन्त्यात्मकल्मषम् // 588 // नयन्ति स्थिरतां चित्तं, सर्वज्ञागमचिन्तया / पश्यन्त्युन्मार्गयायित्वं, मूढानां च कुतीथिनाम् // 589 // तेषामेष जनानां भो, निर्मलीभूतसद्धियाम् / न बाधकः प्रकृत्यैव, महामोहमहत्तमः॥५९०॥ त्रिभिर्विशेषकम / याऽप्येषा गृहिणी पूर्व, वर्णिता वीर्यशालिनी / कुदृष्टिः सापि तद्वीर्यादूरतः प्रपलायते // 591 // ये पुनर्भावयन्त्येवं, मध्यस्थेनान्तरात्मना / शरीरचित्तयो रूपं, योषितां परमार्थतः // 592 // यदुत-सितासिते विशाले ते, ताम्रराजिवराजिनी / जीव ! चिन्तय निर्मिथ्यमक्षिणी मांसगोलकौ // 593 // सुमांसकौ सुसंस्थानौ, मुश्लिष्टौ वक्त्रभूषणौ / लम्बमानाविमौ वधौ, कर्णौ यौ ते मनोहरौ // 594 // यावेतावुल्लसदीप्ती, भवतश्चित्तरञ्जको / ततचर्मावृतं स्थूलमस्थिमा कपोलकौ // 595 // ललाटमपि तादृशं, यत्ते ह्रदयवल्लभम् / दीर्घोत्तुङ्गा सुसंस्थाना, नासिका चर्मखण्डकम् // 596 // यदिदं मधुनस्तुल्यमधरोष्ठं विभाति ते / मांसपेशीद्वयं स्थूरमिदं लालामलाविलम् // 597 // ये कुन्दकलिकाकारा, रदनाश्चित्तहारिणः / एतेऽस्थिखण्डकानीति, पद्धतिस्थानि लक्षय // 598 // य एषोऽलिकुलच्छायः, केशपाशो मनोहरः / योषितां तत्तमो हार्दै, प्रकाशमिति चिन्तय // 599 // यौ काश्चनमहाकुम्भविभ्रमौ ते हृदि स्थितौ / स्त्रीस्तनौ मूढ ! बुध्यख, तौ स्थूलौ मांसपिण्डकौ // 600 // यल्लासयति ते चित्तं, ललितं दोलताद्वयम् / ततचर्मावृतं दीर्घ, तदस्थियुगलं चलम् // 601 // अशोकपल्लवाकारौ, यौ करौ ते मनोहरौ / तावस्थिघटितौ विद्धि, चर्मनद्धौ करङ्कको // 602 // यद्रजयति ते चित्तं, वलित्रयविराजितम् / उदरं मूढ ! तद्विष्ठामूत्रान्त्रमलपूरितम् // 603 // यदाक्षिपति ते स्वान्तं, श्रोणीबिम्बं विशालकम् / प्रभूताशुचिनिर्वाहद्वारमेतद्विभाव्यताम् // 604 // यौ नाटकस्तम्भसन्निभौ परिकल्पितौ / तावूरू पूरितौ विद्धि, वसामज्जाशुचेर्नलौ // 605 // सञ्चारिरक्तराजीवबन्धुरं भाति यच्च ते / तदघ्रियुगलं स्नायुबद्धास्थ्यां पञ्जरद्वयम् // 606 // यत्ते कर्णामृतं भाति, मन्मनोल्लापजल्पितम् / तन्मारणात्मकं मूढ !, विषं हालाहलं तव // 607 // शुक्रशोणितसंभूतं, नवच्छिद्रं मलोल्वणम् / अस्थिशृङ्खलिकामानं, हन्त योषिच्छरीरकम् // 608 // न चास्माद्भिद्यते जीव !, तावकीनं शरीरकम् / कश्चैवं ज्ञाततत्त्वोऽपि, कुर्यात्कङ्कालमीलकम् // प्रचण्डपवनोद्धृतध्वजचेलाग्रचञ्चलम् / चित्तं तु विदुषां स्त्रीणां, कथं रागनिबन्धनम् ? // 610 // विलसल्लोलकल्लोलजालमालाकुले जले / शशाङ्कबिम्बवल्लोकैस्तद् ग्रहीतुं न पार्यते // 611 // स्वर्गापवर्गसन्मार्गनिसर्गार्गलिकासमाः / एता हि योषितो नूनं, नरकद्वारदेशिकाः // 612 //