________________ जननिन्दा साऽपि तं प्रदेश, ततो दृष्ट्वा विमलमालतीनरसुन्दयौं तथा लम्बमाने कृतस्तया हाहारवः, मिलितं सतातं नगरं, समुच्छलितः कोलाहलः, किमेतदिति पृष्टा कन्दलिका, निवेदितं तया सर्व यथावृत्तम् / __ अत्रान्तरे संपन्नः स्फुटतरश्चन्द्रालोकः, ततो दृष्टे तथैवोल्लम्बमाने सर्वलोकेनाम्बानरसुन्दयौँ / विलोकितोऽहमपि स्वकर्मत्रस्ततया भग्नगतिप्रसरो नष्टवाणीकस्तत्रैव लीनो वर्तमानश्छन्नप्रदेशे, जातः संप्रत्ययः, धिक्कारितोऽहं जनेन, कारितं तातेनाम्बानरसुन्दर्योर्मुतककार्यम् / ततस्तत्तादृशं वीक्ष्य, मदीयं कर्म दारुणम् / तातः शोकभराक्रान्तस्तदैवं चिन्तयत्यलम् // 1 // अहोऽनर्थपुञ्जोऽयमहो मे कुलदूषणः / अहो सर्वजघन्योऽयमहो पापिष्ठशेखरः // 2 // अहो सर्वापदां मूलमहो लोकपथातिगः / अहो वैरिकसङ्काशो, ममायं रिपुदारणः // 3 // न कार्य मे ततोऽनेन, पुत्रेणापि दुरात्मा / एवं विचिन्त्य तातेन, कृतश्चित्ते विनिश्चयः॥४॥ ततोऽवधीरितस्तेन, भवनाच्च बहिष्कृतः। भ्रष्टश्रीकः पुरे तत्र, विचगमि सुदुःखितः॥५॥ स्वदुष्टचेष्टितेनैव, बालानामपि सर्वथा / गम्यश्चाहं तदा जातस्ततश्चैवं विगहितः // 6 // पापोऽयं दुष्टचेष्टोऽयमद्रष्टव्यो विमूढधीः / कुलकण्टकभूतोऽयं, सर्वथा विषपुञ्जकः // 7 // मानावलेपनाद् येन, कलाचार्योंऽपकर्णितः / मूर्खचूडामणित्वेऽपि, पाण्डित्यं च प्रकाशितम् // 8 // माता च प्रियभार्या च, येन मानेन मारिता। को वा निरीक्षते पापं, तमेनं रिपुदारणम् // 9 // उक्तमेवेदस्माभितॊचिताऽस्य दुरात्मनः / सा कलाकौशलादीनां, खानिर्या नरसुन्दरी // 10 // ततश्च-वियुक्तो नरसुन्दर्या, यदयं तच्च सुन्दरम् / किं तु सा पद्मपत्राक्षी, यन्मृता तन्न सुन्दरम् // 11 // अहं पुनर्महामोहलुप्तज्ञानः स्वचेतसा / तदापि चिन्तयाम्येवं, भद्रे विमललोचने // 12 // त्यक्तस्यापीह तातेन, निन्दितस्यापि दुर्जनैः। शैलराजमृषावादौ, तथापि मम बान्धवौ // 13 // अनयोहिं प्रसादेन, भुक्तपूर्व मया फलम् / भोक्ष्ये च कालमासाद्य, पुनर्नास्त्यत्र संशयः // 14 // ततश्चैवं जनेनोच्चैनिन्धमानः क्षणे क्षणे / स्थितोऽहं भूरिवर्षाणि, दुःखसागरमध्यगः // 15 // इतश्च-अत्यन्तदुर्बलीभूतः, सकोपो मयि निस्फुरः। स तु पुण्योदयो भद्रे ! स्थितोऽकिश्चित्करस्तदा // 16 // अथान्यदा कचिद्राजा, वाहनार्थ सुवाजिनाम् / वेष्टितो राजवृन्देन, निर्गतो नगराद्धहिः // 17 // ततः कुतूहलाकृष्टः, सर्वो नागरको जनः / तत्रैव निर्गतोऽहं च, संप्राप्तस्तस्य मध्यगः // 18 // अथ वाल्हीककाम्बोजतुरुष्कवरवाजिनः। वाहयित्वा भृशं राजा, गजलोकविलोकितः // 19 // ततः खेदविनोदार्थमुद्यानं सुमनोहरम् / प्रविष्टः सह लोकेन, ललितं नाम शीतलम् // 20 // तच्च कीदृशम् ?-अशोकनागपुन्नागतालहिन्तालराजितम् / प्रियमुँचम्पकाङ्कोल्लकदलीवनसुन्दरम् // 21 // केतकीकुसुमामोदहृष्टालिकुलमालितम् / समस्तगुणसंपूर्ण, सर्वथा नन्दनोपमम् // 22 // युग्मम् / तत्रैकदेशे विश्रम्य, स राजा नरवाहनः / उत्थाय सह सामन्तैलीलया हृष्टमानसः // 23 // प्रलोकयितुमारब्धः, कौतुकेन वनश्रियम् / विस्फारितेन नीलाब्जचारुणा लोलचक्षुषा // 24 // तत्र च-सत्कान्तियुक्तनक्षत्रग्रहसङ्घातवेष्टितम् / प्रकाशितदिगाभोगं, साक्षादिव निशाकरम् // 25 // रक्ताशोकतरुस्तोमपरिवारितविग्रहम् / यथेष्टफलदं साक्षाजङ्गमं कल्पपादपम् // 26 // उन्नतं विबुधावासं, कुलशैलविवेष्टितम् / हेमावदातं सुखदं, सुमेरुमिव गत्वरम् // 27 // कुवादिमत्तमातङ्गमदनिर्णाशकारणम् / वृतं सत्करिवृन्देन, निमदं गन्धवारणम् // 28 // अथ साधूचिते देशे, रक्ताशोकतलस्थितम् / सत्साधुसङ्घमध्यस्थं, कुर्वाणं धर्मदेशनाम् // 29 // विचक्षण सूर्यागमन