________________ तेनापि पृष्टा सोवाच, पर्यालोचं सदातनम् / कालज्ञः प्राह सत्येव, त्वमप्यत्र विचक्षणा // 12 // यतः कालविलम्बेन, क्रियमाणेन वल्लभे ! भोगा भुक्ताः स्थिता प्रीतिर्जातं नाकाण्डविड्वरम् // 13 // प्राप्तो धर्मों नृपादीनामुपकारः कृतो महान् / ततः कालविलम्बोऽयं, फलितोऽत्यर्थमावयोः॥१४॥ विचक्षणाऽऽह को वाऽत्र?, सन्देहो नाथ ! वस्तुनि / किंवा न जायते चारु, पर्यालोचितकारिणाम् // 15 // ततः प्रीतिसमायुक्तौ, संजातौ देवदम्पती / सद्धर्मलाभादात्मानं, मन्यमानौ कृतार्थकम् // 16 // इदं पुत्र ! मया तुभ्यं, कथितं मिथुनद्वयम् / संदिग्धेऽर्थे विलम्बेन, कालस्य गुणभाजनम् // 17 / / ततश्च-संदिग्धेऽर्थे विधातव्या, भवता कालयापना / पश्चाद् बहुगुणं यच्च, तदेवाङ्गीकरिष्यते // 18 // मध्यमबुद्धिराह-यथाऽऽज्ञापयत्यम्बा-- ततो मनीषिणो वाक्यं, स्मरतो नास्य जायते / प्रीतिबन्धो दृढं तत्र, स्पर्शने भाववैरिणी // 19 // बालालापैः पुनस्तत्र, स्नेहबुद्धिः प्रवर्तते / दोलायमानोऽसौ चित्ते, कुरुते कालयापनाम् // 20 // इतश्च तेन बालेन, सा प्रोक्ता जननी निजा / अम्ब ! संदर्शयात्मीयं योगशक्तिबलं मम // 21 // तयोक्तं दर्शयाम्येषा, पुत्र ! त्वं संमुखो भव / ततः सा ध्यानमापूर्य, प्रविष्टा तच्छरीरके // 22 // अथाकुशलमालायाः, प्रवेशानन्तरं पुनः / स बालः स्पर्शनेनापि, गाढं हर्षादधिष्ठितः // 23 // ततः शरीरे तौ तस्य, वर्तमानौ क्षणे क्षणे / अभिलाषं मृदुस्पर्शे, कुरुतस्तीव्रवेदनम् // 24 // परित्यक्तान्यकर्त्तव्यस्तावन्मात्रपरायणः / स बालः सुरतादीनि, दिवा रात्रौ च सेवते // 25 / / कुविन्दडोम्बमातङ्गजातीयास्वपि तद्वशः। अतिलौल्येन मूढात्मा, ललनासु प्रवर्त्तते // 26 // ततोऽकर्त्तव्यनिरतं, सत्कर्त्तव्यपराङ्मुखम् / तं बालं सकलो लोकः, पापिष्ठ इति निन्दति // 2 // अज्ञोऽयं गतलज्जोऽयं, निर्भाग्यः कुलदषणः / स एवं निन्द्यमानोऽपि, मन्यते निजचेतसि // 28 // स्पर्शनाम्बाप्रसादेन, ममास्ति सुखसागरः। लोको यद्वक्ति तद्वक्तु, किमेतज्जल्पचिन्तया // 29 // युग्मम् / अथाकुशलमालाऽपि, निर्गत्य परिपृच्छति / कीदृशी मामिकी जात !, योगशक्तिर्विभाति ते ? // 30 // स प्राहानुगृहीतोऽस्मि, निर्विकल्पोऽहमम्बया / सुखसागरमध्येऽत्र, यथाऽहं संप्रवेशितः // 31 // अन्यच्चाम्ब ! त्वया नित्यं, मदनुग्रहकाम्यया / न मोक्तव्यं शरीरं मे, यावज्जीवं स्वतेजसा // 32 // अथाकुशलमालाऽऽह, यत्तुभ्यं वत्स ! रोचते / तदेव सततं कार्य, मया मुक्तान्यचेष्टया // 33 // स्वाधीनां तां निरीक्ष्यैवं, बालेन परिचिन्तितम् / स्पर्शनोऽपि ममायत्तः सामग्री १६सर्वसाधिका // 34 // अहो मे धन्यता लोके. नास्त्यतो बत मादृशः। ततोऽसौ गाढहृष्टात्मा, स्वानुरूपं विचेष्टते // 35 // अथ निन्दापरे लोके, स्नेहविवलमानसः / लोकापवादभीरुत्वान्मध्यबुद्धिः प्रभाषते // 36 / / बाल ! नो युज्यते कर्तुं, तव लोकविरुद्धकम् / अगम्यागमनं निन्धं, सपापं कुलदूषणम् , // 37 // स प्राह विप्रलब्धोऽसि, नूनं मित्र ! मनीषिणा / स्वर्गे विवर्त्तमानं मां नेक्षसे कथमन्यथा ? // 38 // ये मूढा जातिदोषेण, कोमलं ललनादिकम् / नेच्छन्ति स महारत्नं, मुञ्चन्ति स्थानदोषतः // 39 // तदाकर्ण्य ततश्चित्ते, कृतं मध्यमबुद्धिना / नैष प्रज्ञापनायोग्यो, व्यर्थों मे वापरिश्रमः॥४०॥ एवं च तिष्ठतां तेषां, बालमध्यमनीषिणाम् / अथान्यदा समायातो, वसन्तः कृतमन्मथः१७ // 41 // संजाताः१८ काननाभोगाः,१९ सुमनोभरपूरिताः। भ्रमभ्रमरझङ्कायरतारगीतमनोहराः // 42 // कामिनीहृदयानन्ददायकं प्रियसन्निधौ / विज़म्भते वनान्तेषु, केकिकोकिलकूजितम् // 43 // 16 कार्यसाधिका प्र. 17 कृतमन्मथाः प्र. 18 कानने भोगाः प्र 19 आभोगा: देशाः२० हारि० प्र० मनाययोरीक्षण