________________ ( 8 ) "क्या रूप अनित्य है या नित्य ? अनित्य / जो अनित्य है वह सुख है या दुःख ? दुःख। जो चीज अनित्य है, दुःख है, विपरिणामी है क्या उसके विषय में इस प्रकार के विकल्प करता ठीक है कि-यह मेरा है, यह मै हूँ, यह मेरी आत्मा है ? नहीं।" इसी क्रमले वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान के विषय में भी प्रश्न करके भगवान बुद्ध ने आत्मबाद को स्थिर किया है। इसी प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियाँ उनके विषय, तम्जन्य विज्ञान, मन, मानसिक धर्म और मनोविज्ञान-इन सबको भी अनात्म सिद्ध किया है। ___ कोई भ० बुद्धसे पूछता कि जरा-मरण क्या है और किसे होता है, जाति क्या है और किसे होती है, भव क्या है और किसे होता है ? तो तुरन्त ही वे उत्तर देते कि ये प्रश्न ठीक नहीं / क्योंकि प्रश्नकर्ता इन सभी प्रश्नोंमे ऐसा मान लेता है कि जरा आदि अन्य हैं और जिसको ये जरा आदि होते हैं वह अन्य है। अर्थात् शरीर अन्य है और आत्मा अन्य है / किन्तु ऐसा मानने पर ब्रह्मचर्यवास धर्माचरण संगत नहीं / अतएव भगवान् बुद्धका कहना है कि प्रश्नका आकार ऐसा होना चाहिये-जरा कैसे होती है ? जरा-मरण कैसे होता है ? जाति कैसे होती है ? भव कैसे होता है ? तब भगवान् बुद्ध का उत्तर है कि ये सब प्रतीत्यसमुत्पन्न हैं। मध्यममार्गका अवलंबन लेकर भगवान् बुद्ध समझाते हैं कि शरीर ही आत्मा है ऐसा मानना एक अन्त है और शरीरसे भिन्न आत्मा है ऐसा मानता दूसरा अन्त है किन्तु में इन दोनों अन्तों को छोड़कर मध्यममार्गसे उपदेश देता है कि: 'अविद्याके होनेसे संस्कार, संस्कारके होनेसे विज्ञान, विज्ञानके होनेसे नामरूप, नामरूपके होनेसे छः आयतन, छः आयतनोंके होनेसे स्पर्श, स्पर्शके होनेसे वेदना, वेदनाके होनेसे तृष्णा, तृष्णाके होनेसे उपादान, उपादानके होनेसे भक, भवके होनेसे जाति-जन्म, जन्मके होनेसे जरा-मरण है यह प्रतीत्यसमुत्पाद है।" 1. दीघनिकाय महानिदानसूत्त 15 / 2. पृ० 7 टिप्पण 3 देखो। 3. मज्झिमनिकाय छक्ककसुत्त 14 / 4. संयुत्तनिकाय XII. 35 2. अंगुत्तरनिकाय 3.