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________________ तत्त्वसार मध्यम-वत-पञ्चमाश्चेत्यमी सप्त स्वरभेदाः शब्दाः कर्णेन्द्रियविषया इति स्पर्शाक्यो विशतिसंख्याकाः पुद्गलद्रव्यस्य गुणाः शब्दावयः पुद्गलपर्यायाश्च यद्यप्यनुपचारितासभूतव्यवहारेणात्मनः सन्ति, तथापि शुद्धनिश्चयनयेन पुनर्यस्य शुखात्मनो न भवन्तीति ज्ञेयम् / तहि किरूपोऽस्ति स एवात्मेति पृष्टे प्रत्युत्तरमाह-'सुखो चेयणभावो णिरंजणो सो अहं भणिओ' संसारस्य मूलभूतरागद्वेष-मोहादिदोषरहितत्वात्केवलज्ञानानन्तगुणसहितत्वाच्च शुद्धो यः, पुनश्च किविशिष्टश्चेतनभावः 'चिती संज्ञाने' धातोः प्रयोगोऽयम् / चेत्यतेऽनयेति स्व-परस्वरूपं चेतना / भू सत्तायां धातुः स्वशक्त्या स्वयं भवतीति भावः / चेतनव भावो यस्यासौ चेतनभावः। पुनरपि कथम्भूतः ? निरअनः, निर्गतं ज्ञानावरणाद्यष्टकर्ममलाबनं यस्मादसौ निरखनः। योऽसौ पर्वोक्तस्वरूपः शद्धात्मा भणितः कथितः सोऽहं भवामीति तात्पर्यार्थः // 21 // इति तत्त्वसारविस्तारावतारेऽत्यासन्नभव्यजनानन्दकरे भट्टारकश्रीकमलकोत्तिदेवविरचिते कायस्थमाथुरान्वयशिरोमणीभूतभव्यपुण्डरीकामरसिंहमानसारविन्दविनकरे स्वगततत्त्व-निरजनस्वरूपवर्णनं नाम द्वितीयं पर्व // 2 // य जस्स पत्थि पुणो' निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पंचम इन सात स्वर-भेदरूप शब्द कर्णेन्द्रियके बिषय हैं। इस प्रकार स्पर्श आदिक बोस संख्यावाले पुद्गल द्रव्यके गुण और शब्दादिक पुद्गलकी पर्याय यद्यपि अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे आत्माके होते हैं, तथापि शुद्ध निश्चयनयसे उस शुद्ध आत्माके नहीं है, ऐसा जानना चाहिए। प्रश्न-तो फिर वह आत्मा किस स्वरूप वाला है ? . उत्तर-ऐसा पूछनेपर आचार्य उत्तर देते हैं-'सुद्धो चेयणभावो णिरंजणो सो अहं भणिओ' अर्थात्, संसारके मूलभूत राग, द्वेष, मोह आदि दोषोंसे रहित होनेसे, तथा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणोंसे सहित होनेसे जो शुद्ध चेतन भाव है, वही मैं निरंजन आत्मा हूँ। - __संस्कृत की 'चिती संज्ञाने' धातुसे यह 'चेतना' शब्द निष्पन्न हुआ है। जिसके द्वारा स्व और परका स्वरूप चेता जाय, जाना जाय, उसे चेतना कहते हैं। सत्ता अर्थवाली भू धातुसे भावशब्द निष्पन्न होता है। जो अपनी शक्तिसे स्वयं उत्पन्न होता है, उसे भाव कहते हैं / चेतनारूप भावको चेतनभाव कहते हैं। प्रश्न-फिर भी वह चेतनभाव कैसा है ? उत्तर-निरंजन है। ज्ञानावरणादि आठ कर्ममलरूप अंजन (कालिमा) जिसमेंसे निकल गया है, उसे निरंजन कहते हैं / - इस प्रकार पूर्वोक्त स्वरूप वाला जो शुद्धात्मा है, 'वही मैं हूँ' ऐसा श्री जिनदेवने कहा है। यह सर्व कथनका तात्पर्यरूप अर्थ है // 21 // इस प्रकार अतिनिकटभव्यजनोंको आनन्दकारक, भट्टारक श्रीकमलकीर्ति-विरचित, कायस्थ माथुरान्वयशिरोमणिभूत भव्यवरपुण्डरीक अमरसिंहके मानस-कमलको दिनकरके समान विकसित करनेवाले इस तत्त्वसारके विस्तारावतारमें स्वगत-तत्त्वरूप निरंजन आत्माका स्वरूप वर्णन करनेवाला यह दूसरा पर्व समाप्त हुआ // 2 //
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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