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________________ तस्वसार 61 स्थानमध्ये मिथ्यात्वम् 15 / जीवसमासमध्ये चतुरिन्द्रियजातिः 16 / पर्याप्तिपञ्चकं मनो विना 17 / प्राणाः 8 श्रोत्र-मनोम्यां विना 18 / संज्ञाश्चतस्रः 19 / उपयोगमध्ये 4 कुमति-कुश्रुतिश्चक्षुरचक्षुरिति 20 / ध्यानद्वयं 8 आतं-रौद्रयोः 21 / प्रत्ययमध्ये 42 मिथ्यात्व 5 अविरति 10 कषाय 23 योगाः 4 / 22 / जातिः 200000 / 23 / कुलकोटी 9 चतुरिन्द्रियस्य 24 / तथा पञ्चेन्द्रियादि-पञ्चेन्द्रियमार्गणाभेदाः ज्ञातव्याः / इति गत्याद्याहारपर्यन्तानि चतुर्दश माणास्थानानि शुद्धात्मनि निश्चयेन न सन्ति / तथा मिथ्यात्व-सासादन-मिश्राविरत-संयतासंयत-प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरण-सूक्ष्मसाम्परायोपशान्तकषाय-क्षीणकषाय-सयोगिकेवल्ययोगिकेवल्यन्तानि चतुर्दश गुणस्थानानि यद्यपि व्यवहारानुपचरितासद्भूतनयेनात्मनोऽभिन्नानि, तथापि शुद्धपारिणामिकभावग्राहकेण निश्चयनयेन जीवस्य हेयभूतानि स्वसम्बन्धीनि न भवन्ति / अपि च एकेन्द्रिय-सूक्ष्म-बादर-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिय-संज्यसंज्ञि-पर्याप्तापर्याप्तभेदभिन्नानि चतुर्दश जीवस्थानान्यपि शुद्धात्मनि न भवन्ति। तथा च कर्मक्षयोपशमजनितानि लब्धिरूपस्थानान्यपि यत्रात्मनि न भवन्ति। मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगरूपाणि बन्धस्थानान्यपि न सन्ति / गुणस्थानाधितोदयस्थानोवोरणास्थान-सत्तास्थानादिकानि च यत्र निश्चयनयेन शुखात्मतत्त्वे न भवन्तीत्यर्थः // 20 // अथ मार्गणामेंसे एक आहारकत्व है 14 / गुणस्थानोंमेंसे एक मिथ्यात्व गुणस्थान है 15 / जीवसमासोंमेंसे :: एक चतुरिन्द्रियजाति जीव-समास है 16 / मनके विना शेष पांच पर्याप्तियां हैं 17 / श्रोत्रेन्द्रिय और मनके बिना आठ प्राण हैं 18 / चारों संज्ञाएं हैं 19 / बारह उपयोगोंमेंसे कुमति, कुश्रुत, चक्षु और अचक्षुदर्शन ये चार उपयोग हैं 20 / आर्त-रौद्ररूप आठ ध्यान हैं 21 / बन्धप्रत्ययोंमेंसे मिथ्यात्व 5, अविरति 10, कषाय 23 और योग 4, ये सब ब्यालीस बन्धप्रत्यय हैं 22 / चतुरिन्द्रियसम्बन्धी दो लाख 200000 जातियां हैं 23 / कुलकोटियोंमेंसे चतुरिन्द्रियसम्बन्धी नौ कुलकोटियां हैं 24 / (इस प्रकार चतुरिन्द्रिय जातिका वर्णन किया / ) .. इसी प्रकार पंचेन्द्रियजाति आदिमें पंचेन्द्रियमार्गणाके भेद जानना चाहिए। इस प्रकार गतिमार्गणाको आदि लेकर आहारमार्गणा-पर्यन्त चौदह मार्गणास्थान निश्चयनयसे शुद्ध आत्मामें नहीं हैं। तथा मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, संयतासंयत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण संयत, अनिवृत्तिकरणसंयत, सूक्ष्मसाम्पराय संयत, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली तकके चौदह गुणस्थान यद्यपि व्यवहार-अनुपचरित-असद्भूतनयसे आत्मासे अभिन्न हैं, तथापि शुद्धपारिणामिकभावको ग्रहण करनेवाले निश्चयनयकी अपेक्षा ये जीव के स्वसम्बन्धी नहीं हैं, अतः हेयभूत हैं / - तथा एकेन्द्रिय सूक्ष्म, बादर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय संज्ञो, असंज्ञी ये सातों पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे भिन्न हुए चौदह जीवसमासस्थान भी शुद्ध आत्मामें नहीं हैं। इसी प्रकार कर्मोके क्षयोपशम-जनित लब्धिरूप स्थान भी इस शुद्ध आत्मामें नहीं हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योगरूप बन्धस्थान भी शुद्ध आत्मामें नहीं हैं। गुणस्थानोंके आश्रयसे होनेवाले उदयस्थान, उदीरणास्थान, और सत्तास्थान आदिक भी निश्चयनयसे जिस शुद्ध आत्मतत्त्वमें नहीं हैं, ऐसा वह शुद्ध निरंजनरूप मैं आत्मा हूँ। यह इस गाथाका अर्थ है // 20 //
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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