________________ तत्वसार 43 4 ध्यायत निजात्मानम् / तथाहि-युक्ति दर्शयति-प्राणिनां परिणामानां त्रैविध्यम् / कथम् ? एकेडशुभरूपाः परिणामाः, अन्ये शुभरूपास्तवभावाच्छुद्धा एव भवन्ति / ततोऽशुभरूपान् परिणामांस्त्यक्त्वा स्वाश्रमयोग्यशुभोपयोगेषु वर्तत। किमर्थम् ? दुनिवञ्चनार्थ संसारस्थितिच्छेदनाथ च तावत्कालं प्रवर्तत, यावच्छुद्धोपयोगं प्राप्नुवन्तीति मत्वा शुद्धोपयोगेन शुद्धात्मा ध्यायतीति भावार्थः॥१६॥ अथ भगवान् सूत्रकृदात्मलक्षणं लक्षयतिमूलगाथा-दसण-णाणपहाणो असंखदेसो हु मुत्तिपरिहीणो / सगहियदेहपमाणो णायव्वो एरिसो अप्पा // 17 // संस्कृतच्छाया-दर्शन-ज्ञानप्रधानोऽसंख्यातप्रदेशः स्फुटं मूत्तिपरिहीनः / स्वगृहीतदेहप्रमाणो ज्ञातव्य ईदृश आत्मा // 17 // आगें कहैं हैं राग द्वेषकौं त्याग करि निरंजन आत्माका ध्यान करो ऐसी प्रेरणा करै हैं भा० व०-निश्चय करि आत्मा ऐसा जानने योग्य है-दर्शन ज्ञान है प्रधान जाकै, अर असंख्यातप्रदेशी मूर्ति-रहित अमूर्त है, अर अपनी ग्रहण कीई देहर्के प्रमाण है // 17 // उक्त प्रकारसे करनेमें आचार्य युक्ति दिखलाते हैं-जीवोंके परिणाम तीन प्रकार के होते हैं-कितने ही परिणाम हिंसादि तो अशुभरूप होते हैं / कुछ परिणाम दया-दानादिरूप शुभ होते हैं। और कुछ परिणाम शुभ-अशुभभावके अभावसे शुद्धरूप होते हैं। इसलिए सर्वप्रथम अशुभ परिणामोंको छोड़कर अपने आश्रम या पदके योग्य शुभोपयोगमें प्रवृत्ति करो। प्रश्न-किसलिए शुभोपयोगमें प्रवृत्ति करें ? उत्तर-आर्त्त-रौद्ररूप दुनिसे बचनेके लिए और संसारकी स्थितिका छेदन करनेके लिए उस समयतक शुभोपयोगमें प्रवृत्ति करनी चाहिए, जब तक कि शुद्धोपयोग प्राप्त होवे। . ऐसा समझकर शुद्धोपयोगके द्वारा शुद्धात्मा ही ध्यान करनेके योग्य है / यह इस गाथाका भावार्थ है // 16 // अब सूत्रकार भगवान् देवसेन आत्माका लक्षण कहते हैं अन्वयार्थ-(हु) निश्चयनयसे आत्मा (दसण-णाणपहाणो) दर्शन और ज्ञानगुण प्रधान है, (असंखदेसो) असंख्यात प्रदेशी है, (मुत्तिपरिहीणो) मूत्तिसे रहित है, (सगहियदेहपमाणो) अपने द्वारा गृहीत देह-प्रमाण है। (एरिसो) ऐसे स्वरूपवाला (अप्पा) आत्मा (णायव्वो) जानना चाहिए।