________________ 42 तत्त्वसार मोक्षाभिलाषिभिभव्यजिनोक्तधर्मध्यानेषु भवानपूर्वकमुखमपरायणैर्भवितव्यमिति भावार्थः // 15 // अथ सूत्रकारो भव्यजनार्थी युक्ति वर्शयतिमूलगाथा-तम्हा अब्भसऊ सया मोत्तूणं राय दोस वा मोहे / झायउ णिय अप्पाणं जइ इच्छह सासयं सोक्खं // 16 // संस्कृतच्छाया-तस्मावभ्यसत सदा मुक्त्वा राग-रषौ वा मोहम् / घ्यायत निजात्मानं यदीच्छत शाश्वतं सोल्यम् // 16 // टीका-'तम्हा' इत्यादि, पदखण्डनारूपेण वृत्तिकारो व्याल्यानं करोति–'जइ इच्छह' भो भव्यजना यदि चेदिच्छत, किं तत् ? 'सासयं सोक्वं' शाश्वतं स्वाधीनमविनश्वरं सौल्यम् / 'तम्हा अम्भसऊ सया' तस्मात् कारणात् सदा सर्वकालं निरन्तरं सद्गुरूपदेशेन ध्यानमभ्यसतअभ्यासं कुरुत / ध्यानाधिकाराद् ध्यानमेव प्राप्यते / किं कृत्वा ? पूर्व 'मुत्तूणं रायदोस वा मोहे' मुक्त्वा, को ? राग-द्वषो। वा अथवा मोहमपि / पश्चात् किं कुरुत ? 'सायउ णियअप्पाणं' आगं कहें हैं ताही कारणतें ध्यानका अभ्यास करहू भा० वा.-ताही कारणतें सदाकाल निजआत्माकू ही ध्यावहू, अर अभ्यास करहू, अर राग द्वेष वा मोहकू छांडिकरि जो शाश्वता सुखकू इच्छा करो हो तो // 16 // पुरुषोंको जिनोक्त धर्मध्यानमें श्रद्ध न-पूर्वक उद्यम करने में तत्पर होना चाहिए / यह इस गाथाका भावार्थ है // 15 // अब गाथासूत्रकार आ० देवसेन भव्यजनोंके योग्य युक्तिको दिखलाते हैं अन्वयार्थ-(तम्हा) इसलिए (जइ) यदि (सासयं) शाश्वत (सुक्खं) सुखको (इच्छह) चाहते हो तो (राय दोस वा मोहे) राग, द्वेष और मोहको (मोत्तूणं) छोड़कर (सया) सदा (अब्भसउ) ध्यानका अभ्यास करो और (णिय-अप्पाणं) अपनी आत्माका (झायउ) ध्यान करो। ____टोकार्य-अब टीकाकार 'तम्हा अन्भसउ' इत्यादि गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हैं'जइ इच्छह' भो भव्यजनो, यदि उस शाश्वत स्वाधीन और अविनश्वर सुखको चाहते हो 'तम्हा अब्भसउ सया' तो इसके लिए सदा सर्वकाल निरन्तर सद्गुरुके उपदेशानुसार ध्यानका अभ्यास करो। यहां ध्यानका अधिकार होनेसे 'ध्यान' पदका अध्याहार प्राप्त होता है। प्रश्न-क्या करके ध्यानका अभ्यास करें? उत्तर-'मोत्तू णं राय दोस वा मोहे' अर्थात् रागको, द्वेषको और मोहको छोड़कर ध्यानका अभ्यास करो क्योंकि इन राग-द्वेषादिका त्याग किये बिना ध्यानकी प्राप्ति असंभव है। प्रश्न-पुनः क्या करें? उत्तर-'झायउ णिय अप्पाणं' अर्थात् फिर अपनी शुद्ध-बुद्ध, चिदानन्दमय आत्माका ध्यान करो।