________________ तत्त्वसार टीका-'अज्जवि तिरयणवंता' इत्यादि पदखण्डनारूपेण टीकाकारो मुनिर्व्याल्यानं करोति / तथाहि-भो भव्यजना यूयं जिनोक्तनयविभागेनानभिज्ञाः सन्तो ध्यानमाहात्म्यं न जानीथ इति / किं तत् ? अद्यापि पञ्चमकलो दुःखमकाले केचन सन्तो भव्यजीवा एवंविधाः सन्ति त्रिरत्नवन्तः-त्रयाणां रत्नानां समाहारस्त्रिरत्नम्, द्वन्द्वकत्वम् 'द्वन्द्वसमासैकत्वम्। त्रिरत्नं विद्यते येषां ते त्रिरत्नवन्तः। 'अप्पा माऊण जंति सुरलोए' आत्मानं ध्यात्वा सम्यगेकाग्रचित्तेन ते सुरलोक यान्ति गच्छन्तीति कालस्यानुसारेण वाञ्छितसुखं भुक्त्वा। 'तत्थ चुया मणुयत्ते उप्पज्जिय लहहि णिव्वाणं ततः स्वर्गलोकाच्च्यत्वा मनुष्यत्वे वर्णत्रयमध्ये उत्तमकलजातमनष्यभवे समस्या राजाधिराज-महाराजामण्डलेश्वर-मण्डलेश्वर-महामण्डलेश्वर-बलभद्रार्धचक्रि-सकलचक्रवत्तितीर्थ - कृत्प्रमुखानां पुरुषोत्तमानां मध्ये चकतमं पदं प्राप्याभिलषितसुखमनुभूय च किञ्चिन्निमित्तं वैराग्यकारणं लब्ध्वा राज्यादिकं त्यक्त्वा जिनोक्तशिक्षा दीक्षां च प्रतिपाल्य निर्विकारचित्तेन भेदाभेदरत्नत्रयभावनास्वरूपेण शुद्धात्मानमाराध्य कर्मक्षयं कृत्वा निर्वाणं लभन्ते / होति मत्वा उत्तम कूल जाति मनुष्यभवविर्षे उपजि राजाधिराज महाराजा अर्धमंडलेश्वर बलभद्र सकलचक्री तीर्थकृत मुख्यनिमैं कोई एक श्रेष्ठ पद पाय अर मनोवांछित सुखकू ही अनुभव करि, अर कोई एक वैराग्यकारणकू प्राप्त होय राज्यादिकनिकू त्यागि अर जिनोक्त दीक्षा पालिकरि निर्विकार चित्त करि भेदाभेद रत्नत्रय भावना स्वरूप करि शुद्धात्माकू आराधि कर्मका क्षयकू करि निर्वाण कूप्राप्त होय है। या प्रकार मानि मोक्षका वांछक भव्यनिनैं जिनोक्त धर्मध्यानविर्षे श्रद्धानपूर्वक उद्यमविर्षे तत्पर होना योग्य है // 15 // टीकार्थ-टीकाकार कमलकीर्ति मुनि 'अज्जवि तिरयणवंता' इत्यादि गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हैं-उक्त प्रकारके विषयासक्त और ध्यानका अभाव कहनेवाले लोगोंको सम्बोधन करते हुए वे कहते हैं-भो भव्यजनो, तुम लोग जिन-प्ररूपित नयोंके विभागसे अनभिज्ञ होते हुए ध्यानमें माहात्म्यको नहीं जानते हो कि आज भी इस दुःखम पंचम कलिकालमें कितने ही त्रिरत्नवन्त सन्त भव्य जीव हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र यें तीन धर्मरूप रत्न हैं। तीन रत्नोंके समाहारको त्रिरत्न कहते हैं / ये त्रिरत्न जिनके पाये जाते हैं, वे त्रिरत्नवन्त कहलाते हैं / अर्थात् रत्नत्रयात्मक धर्मके धारण करनेवाले भव्य जीव 'अप्पा झाऊण जंति सुरलोयं' आत्माका एकाग्र चित्तसे ध्यान करके देवलोकको जाते हैं और वहांपर अपनी आयुस्थितिके अनुसार वांछित सुख भोगकर 'तत्थ चुया मणुयत्ते उप्पज्जिय लहहि णिव्वाणं' उस स्वर्गलोकसे च्युत होकर मनुष्यत्वमें अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन वर्गों के मध्य में उत्तमकुलीन मनुष्यभवमें उत्पन्न होकर, राजा, अधिराज, महाराज, अर्धमण्डलेश्वर, मण्डलेश्वर, महामण्डलेश्वर, बलभद्र, अर्धचक्री, सकलचक्रवर्ती और तीर्थंकर-प्रमुख पुरुषोत्तमोंके मध्यमेंसे किसी एक पदको प्राप्त कर, तथा उसके अभिलषित सुखोंका अनुभव कर और किसी निमित्तभूत वैराग्यका कारण पाकर राज्यादिक सम्पदाका त्याग कर और जिन-प्ररूपित शिक्षाको ग्रहण कर तथा दीक्षाका भलीभांतिसे निर्विकार चित्त होकर परिपालन कर भेद-अभेदरूप रत्नत्रयकी भावनाके द्वारा शुद्ध आत्मस्वरूपकी आराधना - रके सर्व कर्मोका क्षय करके निर्वाण अर्थात् मोक्षको प्राप्त करते हैं। ऐसा जानकर मोक्षाभिलाषी भव्य