________________ सारपसार संसारिणो जीवाः / कथम्भूलास्ते? 'संका-सामहिया' शङ्का-काक्षा पूर्वोक्तलक्षणा, ताभ्यां गृहीता ग्रसिता वा / पुनश्च कथम्भूताः। पुनरपि कि विशिष्टाः ? सन्मार्गात् समीचीनमार्गात प्रकर्षेण भ्रष्टाः 'विसयपसत्ता सुमग्गपन्भट्ठा' विषयप्रसक्ताः पञ्चेन्द्रियविषयेप्यासक्ता लम्पटाः / यतस्ते मोहान्धास्तत एव कारणात्, ध्यानाभावं कालमिमं प्रलुम्पयन्तीति प्रभ्रष्टा सन्तः। किं भणन्ति ? 'ण हि कालो होइ माणस्स' कालोऽयं स्फुटं यथा ध्यानस्यार्हो न भवतीति भावार्थः // 14 // अथ भट्टारकश्रीदेवसेनदेवास्तान् सुगृहीतध्यानाभावान् जीवान् सम्बोधयन्तिमूलगाथा-अज्जवि तिरयणवंता अप्पा झाऊण जंति सुरलोए। तत्थ चुया मणुयत्ते उप्पज्जिय लहहि णिव्वाणं // 15 // संस्कृतच्छाया-अद्यापि त्रिरत्लवन्त बात्मानं ध्यात्वा यान्ति सुरलोकम् / ततश्च्युत्वा मनुजत्वे उत्पद्य लभन्ते निर्वाणम् // 15 // आगं कहैं हैं अबार भी रत्नत्रयशुद्ध परंपरा करि मोक्ष जाय है भा० व०-अबार हू तीन रत्नत्रय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्रवान् ऐसा साधू है ते आत्माकू ध्याय करि सुरलोक विर्षे जाय हैं, तहां तें चय करि मनुष्यपणा विर्षे उपजि करि निर्वाणकू ही प्राप्त होय है। . . . ___ भावार्थ-अबार पंचमकालविर्षे दुःखमकालविष तीन रत्नवान् आत्माकू ध्यान करि स्वर्गलोक जाय है / अर स्वर्गलोक तें चयकरि मनुष्यपणा विर्षे तीन वर्ण क्षत्री ब्राह्मण वैश्य इनिमें प्रश्न-वे संसारी जीव कैसे हैं ? उत्तर-शंका और कांक्षासे गृहीत हैं / अर्थात् उन्हें जिन-वचनोंमें शंका है और वे विषयसुखोंकी आकांक्षासे ग्रसित हैं। प्रश्न-पुनः वे जीव कैसे हैं ? उत्तर-पंच इन्द्रियोंके विषय-जनित सुखमें आसक्त हैं, अर्थात् लम्पट हो रहे हैं। प्रश्न-पुनः वे जीव कैसे हैं ? उत्तर-सुमार्गसे प्रभ्रष्ट हैं / अर्थात् मोक्षका रत्नत्रयस्वरूप जो समीचीन मार्ग है, उससे सर्वथा भ्रष्ट हो रहे हैं ? उक्त प्रकारके विषयासक्त और सन्मार्ग-भ्रष्ट मनुष्य कहते हैं कि यह वर्तमान काल ध्यानके योग्य नहीं है, उनके ऐसा कहनेका कारण यह है कि वे मोहसे अन्धे हो रहे हैं, और इसी कारण वे इस कालमें ध्यानका अभाव बताकर ध्यानका लोप करना चाहते हैं। यह इस गाथाका भावार्थ है // 14 // ___ अब भट्टारक श्री देवसेनदेव ध्यानका अभाव कहनेवाले उन जीवोंको सम्बोधन करते हुए कहते हैं अन्वयार्य-(अज्जवि) आज भी (तिरयणवंता) रत्नत्रय-धारक मनुष्य (अप्पा) आत्माका (झाऊण) ध्यानकर (सुरलोयं) स्वर्गलोकको (जंति) जाते हैं, और (तत्थ) वहांसे (चुया) च्युत होकर (मणुयत्ते) उत्तम मनुष्यकुलमें (उप्पज्जिय) उत्पन्न हो (णिव्वाणं) निर्वाणको (लहहि) प्राप्त करते हैं /