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________________ तत्पसार किं कर्तुम् ? 'मेरसिहरमारहि आरोढुम् / किं तत् ? मेरोः शिखरम् / 'तह शाण विहीणो' तथा स्वगततत्त्वपरगततत्त्वज्ञः ध्यानेन विहीनो विकलः कश्चिवाराषकासासः / बाराषकाभास इति कोऽर्थः ? आराधकलक्षणरहित भाराषकवयवभासमान भाराषकाभासः / यथा जलाभासा मृगमरीचिका इत्यर्थः। 'इच्छा कम्मक्लयं साहू' इच्छति वाञ्छति, कर्मक्षयं द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मणां क्षयः कर्मक्षयः, तं कर्मक्षयम् / इच्छति ? सापुः / साघुशन्वेन यतिजन एवं प्राप्यते, यतः कारणमन्तरेण कार्य न सिद्धपतीति मत्वा जिमोक्तनयविभागेन मोक्षाभिलाषिणा ध्यानवता भाव्यमिति भावार्थः॥१३॥ अथ ये सम्प्रति वर्तमानकाले ध्यानं न मन्वते तेषां लक्षणमाहुःमूलगाथा-संका-कंखागहिया विसयपसत्ता सुमग्गपन्भट्ठा / ____ एवं भणंति केई ण हु कालो होइ झाणस्स // 14 // संस्कृतच्छाया-शा काक्षागृहीता विषयप्रसक्ताः सन्मार्गप्रभ्रष्टाः। ___ एवं भणन्ति केचन न हि कालो भवति ध्यानस्य // 14 // टीका-एवं भगति केई एवमिति वक्ष्यमाणकालमपेक्ष्यते / भणन्ति कथयन्ति केचन आगे कहें हैं केई मिथ्यात्वी असें कहें हैं अबारध्यानका काल नाहीं भा० व० कई मनुष्य या प्रकार कहे हैं निश्चय करि ध्यानका काल नांही हैं। कैसे हैं ते मनुष्य ? शंका कांक्षा करि ग्रस्या, अर पंच इंद्रियनिका विषयनि विर्षे आसक्त अर भले मार्ग विशेषपणां तें भ्रष्ट ऐसें ध्यानका अभ्यास कू कहे हैं // 14 // निरर्थक है, उसी प्रकार यदि कोई साधु स्वगततत्त्व और परगततत्त्वका ज्ञाता होकरके भी ध्यानके बिना कर्मोके क्षय करनेकी इच्छा करता है, तो उसकी वह इच्छा जल-सदृश प्रतीत होनेवाली मृगमरीचिकाके समान व्यर्थ है, क्योंकि ध्यानके बिना धर्मकी आराधना करनेवाला व्यक्ति सच्चा आराधक नहीं, किन्तु आराधकाभास है। जो आराधकके यथार्थ लक्षणसे रहित हो और आराधकके समान प्रतीत हो, उसे आराधकाभास कहते हैं / अनादि कालसे संबद्ध द्रव्यकर्म-ज्ञानावरणादि, भावकर्म-राग-द्वेषादि और नोकर्म-शरीरादिका क्षय करना ध्यानके बिना असंभव है। गाथा-पठित साध शब्दसे यतिजनका ही अभिप्राय है। कर्म-क्षयका कारण ध्यान ही है, अतः कारणके बिना कर्मक्षयरूप कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है, ऐसा जानकर जिनदेव-भाषित नयविभागको जानकर मोक्षके अभिलाषी पुरुषको ध्यानवाला होना चाहिए, अर्थात् ध्यानका अभ्यास करना चाहिए, यह इस गाथाका भावार्थ है // 13 // ____ अब आचार्य उन पुरुषोंका लक्षण कहते हैं जो यह मानते हैं कि इस वर्तमानकालमें ध्यान. का होना संभव नहीं - अन्वयार्थ-(संका-कंखागहिया) शंकाशील और विषय-सुखकी आकांक्षावाले, (विसयपसत्ता) इन्द्रियोके विषयोंमें आसक्त (सुमग्गपन्भट्ठा) और मोक्षके सुमार्ग से प्रभ्रष्ट (केई) कितने ही पुरुष (एवं) इस प्रकार (भणंति) कहते हैं कि (कालो) यह काल (झाणस्स) ध्यानके योग्य (ण है) नहीं (होइ) है। ___टीकार्थ-‘एवं भणंति केई' इस चरणमें पठित 'एवं' पद वक्ष्यमाण-वर्तमान कालकी अपेक्षा करता है। कितने ही संसारी जीव ऐसा कहते हैं कि यह वर्तमानकाल ध्यान योग्य नहीं है।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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