________________ तत्त्वसार टीका-इत्यवतारिकानन्तरमाचार्यो वृत्तिकृदाह / तद्यथा-'लाहालाहे सरिसो' भोजनादि सन्तै, अथवा सरोग होत सन्त वेदना होत सन्तै सदृशता है। अर तैसें ही जीवित मरण . होत सन्तै सदृशता है। अर बन्धूजन अर वैरीजननि विर्षे समानता है जिनके, ऐसे ते ही ध्यान समर्थ होय हैं। भावार्थ-लाभ-अलाभ तौ अन्तरायकर्मकी खलासी अर उदयतें होय है, तहां ज्ञानी विचार है जो लाभ भया तो अन्तराय कर्मकी खलासीतें भया, यामें कहा प्रीति करना / अनंता प्राणीनिकै लाभ होय ही है / अर अन्तराय कर्मकी आधिक्यतातै अनन्ता प्राणी सदा काल क्षुधित दलिद्री कदे-कदे पेट भरि नाहीं खाया, अर साविक उमरमें मन-वांछित वस्त्रादिक नाहीं मिले, अर रुपया महोरादिक नांही मिली। अर और देखहु अनंतकाल परिभ्रमण करता भया, तहां अपणे अंतरायकी खलासी माफिक आहार पाणी वस्त्रादिक भी मिल्या ही है / जो आजि लाभ न भया तो कहा भया, अर भया तो कहा भया, यह तो कर्माधीन है। अर मैं कर्मनिकं आधीनता हित भया चाहूँ हूँ तो अब मेरै लाभमैं रागीपना, अलांभमैं उदासीपनां काहे का ? अर में भी रागी द्वेषी भया तो संसारवर्ती प्राणी अर परमार्थमैं प्रवर्त्या मैं तामैं कहा विशेष रह्या ? ऐसा विचारि लाभ-अलाभ विष सदा प्रसन्न रहै हैं / अर तैसें ही सुख-दुःख विर्षे समता जाणौं, जो साता वेदनी करि सुखका उदय होय है, अर असाता वेदनीका उदयतें नाना प्रकारका खास श्वास ज्वर भगंदर कठोदर जलोदर खाजि कोड़ शिरशूल उदरशूल नेत्रशूल आदि अनेक दुःख उत्पन्न होत हैं। अर लोक नाना इलाज करें हैं, परन्तु असाताका उदयका अभाव विना आराम नहीं होता देखिये है। अर सातावेदनीका उदयकी आधिक्यता तो स्वर्ग लोकविर्षे है, तहां मनस्मरणमात्र तो अमृतमई भोजन अर मनचाही महामनोहर देवांगना महाभोग्य अर महा मनोहर है रूप जिनका, अर मनोहर है अंग जिनका, अर सुंदर शब्द अर नृत्य जिनका, अर अति मनोहर है सुगंध अंग विर्षे जिनके, अर महा प्रवीण देवांगना तिनिकै संभोग-जनित नाना स्वर्गसम्बन्धी सुख स्व-इच्छा विहार, नाना देवनि परि आग्या इत्यादिक नाना सुख भोगे। तहां हू तृप्त न भया तो इहांके किंचित् मात्र सुख अल्प काल ता विर्षे कहां सुखका मानना ? पराधीन सुख काहे का सुख ? अर सुख तो निजात्मामैं जानना देखना वाला मैं हूँ, तहां है, अन्य जायगा नांही। अर जीवना मरणा यह पर्याय अपेक्षा है। तहां भी आयुकर्मके आधीन मरणां जीवनां है। सो सर्वज्ञदेवनें अच्छी तरहै देख्या है तैसें ही होयगा, कहीं तरहैका फरक नाहीं जाणनां / इन्द्र धरणेन्द्र चन्द्र सूर्य चक्रवर्ती तीर्थंकरादिक ह कर्माधीन प्राणीकू मरण जीवनत नाहीं बचाय सके हैं। तो अवश्य मरण है तामैं कहा शोक है ? अर जीवनेमें कहा हर्ष है। यह तो निज आयुका त्रिभागविर्षे पूर्वभवविर्षे अपने ही परिणामनि करि बांधी सो अवश्य भोगनी है / यात जीवन-मरणमैं सदा काल प्रसन्न रहै हैं। अर बन्धुजन अर वैरीजन तिन विर्ष भी समान है, इत्यादि ग्याताकै ध्यान विर्षे समता होय है // 11 // टोकार्थ-इस प्रकार गाथाका अवतरण करके टीकाकार आचार्य उसका व्याख्यान करते