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________________ तत्वसार टीका-अस्या गापामा अवतारिकानन्तरं टीकाकारो विशेषार्थमाह-'बहिरम्भंतरगंया मुक्का जेणेह सिविहलोएन' एवं पूर्वोक्तप्रकारेण बाह्याभ्यन्तरप्रन्या येन आसन्नभव्येन कालादिलन्विक्शात् सव-गुरूपदेशाच्चेते ग्रन्था मुक्ताः, इह जगति मनोवचनकाययोगेन त्रिविधेन 'सो णिग्यो भाणको जिनलिंगसमासिओ समणो' स एव साक्षात् परमनिनन्थैर्वीतरागस निनन्थों भणितः कषितः। पुनश्च कर्वभूतो भणितः ? जिनलिङ्गसमाश्रितः श्रमणो मुनिश्चेति मत्वा भव्यजनैजिनलिङ्गसमाश्रितः निर्गन्थरूपेण भवितव्यमिति भावार्थः // 10 // अथ हे भगवन्, ध्यानाहमुनिलक्षणं कीदृशमिति भगवानाहमूलगाथा- लाहालाहे सरिसो सुह-दुक्खे तह य जीविए मरणे / बंधु-अरियणसमाणो झाणसमत्थो हु सो जोई // 11 // संस्कृतच्छाया-लाभालाभयोः सवृशः सुख-दु.खयोस्तथा च जीवित-मरणयोः। बन्ध्बरिजनो समानो ध्यानसमर्थः स्फुटं सं योगी // 11 // आगें ध्यानकी योग्यता कहै हैं भा० व०-प्रगट सो योगी मुनि है सो ध्यान समर्थ होय है। सो कैसा होय है लाभ जो भोजन कमंडलु पीछी वसतिका इनिका लाभ विर्षे अथवा अलाभ होत सन्तै सदृश होय हैं / लाभ होहु, अथ मति होहु, दोऊ अवस्था विर्षे जिनके समानता है / अर सुख जो शरीरादिक निरोग होत (सो) वह (जिलिंगसमासिओ) जिनेन्द्रदेवके लिंगका आश्रय करने वाला (समणो) श्रमण (णिग्गंथो) निर्ग्रन्थ (भणिओ) कहा गया है। टीकार्य-इस गाथाका उक्त अवतरण करनेके पश्चात् टीकाकार उसके विशेष अर्थको कहते हैं-'बहिरब्भंतरगंथा' इत्यादि, इस पूर्वोक्त प्रकारसे बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ जिस निकट भव्यने काल आदि लब्धिके वशसे और सद्गुरुके उपदेशसे इस जगत्में मन वचन कायरूप त्रिविध योगसे छोड़े हैं, 'सो णिग्गंथो भणिओ' इत्यादि, वह ही साक्षात् परम निम्रन्थ वीतराग सर्वज्ञोंके द्वारा निर्ग्रन्थ कहा गया है। प्रश्न-वह निर्ग्रन्थ किस प्रकारका कहा गया है ? उत्तर-जिनलिंग समाश्रित अर्थात् जिनेन्द्रदेवका परम वीतरागी निर्ग्रन्थ वेष है उसको धारण करने वाला श्रमण मुनि कहा गया है। इस प्रकार जानकर जिन-लिंग के धारक भव्यजनोंको परम शुद्ध निर्ग्रन्थ रूपवाला होना चाहिए, यह इस गाथाका भावार्थ है // 10 // अब हे भगवन् ! ध्यानके योग्य मुनिका लक्षण किस प्रकारका है ? इसका उत्तर भगवान् देवसेनदेव देते हैं अन्वयार्थ-जो (लाहालाहे) लाभ और अलाभमें, (सुहदुक्खे) सुख और दुःखमें (तह य) और उसी प्रकार (जीविए मरणे) जीवन तथा मरणमें (सरिसो) सदृश रहता है, इसी प्रकार (बंधुअरियणसमाणो) वन्धु और अरिमें समान भाव रखता है, (सो हु) निश्चयसे वही (जोई) योगी (झाणसमत्यो) ध्यान करने में समर्थ है।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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