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________________ तत्वसार मोक्षाभिलाषिणः पञ्चप्रकारसंसारदुःखभीताश्च तहि ततस्वं ध्यायत / किं कृत्वा ? पूर्व निग्नन्थ्यभूत्वा। ते ग्रन्था उच्यन्ते बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधाः। तथाहि-क्षेत्र-वास्तु-हिरण्य-सुवर्ण-धनधान्य-कुप्याकुप्यभेदेन वशप्रकारा बाह्या ग्रन्था भवन्ति। मिथ्यात्वं 1 स्त्रीवेब-युवेद-नपुंसकवेवेषु त्रिष रागः३। हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जगृप्साः षट 6 / क्रोष-मान-माया-फोभाख्याश्चत्वारः कषायाः 4 / इत्यन्तरङ्गाः ग्रन्थाः चतुवंश। इत्युभयप्रकारेण चतुर्विशति ग्रन्था निर्गता ग्रन्थेभ्यो ये ते निन्थाः। यतो निनन्थत्वेन तत्त्वोपलब्धिरिति निन्थमुद्रावलम्बिभिमुनिभिः स्वगततत्त्वं ध्यातव्यम् / इतरेश्च मध्यम-जघन्याराधकैरुपादेयबुद्धघा तस्मिन् तत्त्वे भावना च कर्तव्येति भावार्थः // 9 // अथ पुनरपि भट्टारकश्रीदेवसेनदेवा निनन्यलक्षणमाहुःमूलगाथा-बहिरब्भन्तरगंथा मुक्का जेणेह तिविहजोएण / ___ सो णिग्गंथो भणिओ जिलिंगसमासिओसमणो // 10 // संस्कृतच्छाया-बाह्याभ्यन्तरग्रन्था मुक्ता येनेह त्रिविषयोगेन / स निग्रन्थो भणितो जिनलिङ्गसमाश्रितः भमणः // 10 // आगें निर्ग्रन्थता कू कहैं हैं भा० व०-या लोकविर्षे जाने मन वचन कायके जोग करि बाह्य तो दश प्रकार अर अभ्यन्तर चौदा प्रकार ग्रन्थ जे परिग्रह जे हैं ते त्याग्या है सो निर्ग्रन्थ कह्या है श्रमण कहिए मुनि / कैसा है मुनि, जिन लिंगकू आश्रय किया है // 10 // विशुद्ध है, ऐसा जानकर भो भव्य पुरुषो! यदि तुम लोग मोक्षके अभिलाषी हो, और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पांच प्रकारके परिवर्तन वाले संसारके दुःखोंसे भय-भीत हो, तो उस विशुद्ध तत्त्वका ध्यान करो। प्रश्न-क्या करके ध्यान करें? उत्तर-निर्गन्थ अर्थात् ग्रन्थसे-परिग्रहसे रहित हो करके ध्यान करो। ... वे ग्रन्थ (परिग्रह) बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारके कहे गये हैं। यथा-क्षेत्र, वास्त, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, कृप्य और अकृप्यके भेदसे. बाह्य परिग्रह दश प्रकारके होते हैं। मिथ्यात्व 1, स्त्रीवेदमें राग 2, पुरुषवेदमें राग 3, नपुंसकवेदमें राग 4, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये छह नोकषाय 10, और क्रोध, मान, माया लोभ ये चार कषाय 14 / इस प्रकार अन्तरंग ग्रन्थ चौदह प्रकार के होते हैं / ये बाह्य दश और अन्तरंग चौदह प्रकारके ग्रन्थ मिलकर चौबीस प्रकारके ग्रन्थोंसे जो निर्गत अर्थात् निकल चुके हैं, सर्वथा रहित हैं, वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। यतः निग्रंथतासे ही तत्त्वकी उपलब्धि (प्राप्ति) होती है, अतः निर्ग्रन्थ मुद्रा-धारक मुनिजनोंको स्वगत तत्त्वका ध्यान करना चाहिए। उनके सिवाय अन्य जो मध्यम आराधक देशव्रती श्रावक हैं और जघन्य आराधक अविरती सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं, उन्हें उपादेय बुद्धिसे उस विशुद्ध तत्त्वमें भावना करनी चाहिए, यह इस गाथाका भावार्थ है // 9 // .. ___ अब फिर भी भट्टारक श्री देवसेनदेव निर्ग्रन्थका लक्षण कहते हैं __अन्वयार्थ-(इह) इस लोक में (जेण) जिसने (तिविहजोएण) मन, वचन, काय इन तीन प्रकारके योगोंसे (बहिरभंतरगंथा) बाहिरी और भीतरी परिग्रहोंको (मुक्का) त्याग दिया है,
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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