________________ प्रस्तावना भारतीय दर्शन शास्त्रोंमें जहाँ कहीं भी ध्यानका वर्णन किया गया है, वहाँ सर्वत्र ध्यानकी सिद्धिके लिए कहा गया है कि साधक इष्ट प्रिय वस्तुको पाकर हर्षित न हो और अप्रिय वस्तुको पाकर उद्विग्न न हो, किन्तु दोनोंमें समानरूपसे स्थिर बुद्धि रहे, परमें मोहित न हो, आत्मस्वरूपमें स्थित रहे / इन्द्रियोंका विजेता हो, सर्व प्राणियों पर अपने समान बुद्धि रखें। प्रशान्त चित्त हो, परमात्मामें समाहित बुद्धि हो, शीत-उष्ण, सुख-दुःख और मान-अपमानमें समान भाव रखने वाला हो / मित्र और शत्रुमें उदासीन हो, बन्धु और द्वेष रखने वालों पर मध्यस्थ हो, साधुजनोंमें और पापी पुरुषोंमें तथा स्वर्ण और पाषाणमें भी समान बुद्धि रखने वाला हो। आशा-तृष्णासे रहित हो, अपरिग्रही हो, और सावधान चित्त हो, ऐसा योगी ही एकान्तमें एकाकी बैठकर अपने आत्मामें अपने आपको संलग्न करे / ध्यानकी सिद्धि घरके व्यापारोंमें संलग्न आरम्भी और परिग्रही गृहस्थके सम्भव नहीं है / गृहस्थ ध्यान करनेके लिए जब भी आँख बन्द करके बैठता है, तभी घरके व्यापार उसके सम्मुख आकर खडे हो जाते हैं। चंचल मनको वशमें करना गहस्थके लिए शक्य नहीं है। यही कारण है कि चित्तकी चंचलता शान्त करनेके लिए सत्पुरुषोंने पूर्व कालमें घरके निवासका त्याग किया है / कदाचित् आकाश-कुसुम और खर-शृंगका होना सम्भव है किन्तु किसी भी देश या कालमें गृहस्थाश्रमके भीतर रहते हुए ध्यानकी सिद्धि सम्भव नहीं हैं। ____ यही कारण है कि आ० देवसेनने भावसंग्रहमें पंचम गुणस्थानका वर्णन करते हुए जहाँ गृहस्थके ध्यानका निषेध किया है, वहां छठे गुणस्थानवर्ती साधुके उपचार रूपसे धर्मध्यानका 1. न हृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम् / स्थिर बुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः // (गीता० 5,20) 2. योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः / . ' सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते / / (गीता० 5,7) 3. समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः / शीतोष्ण-सुखदुःखेष समः संगविवजितः / / (गीता० 12,18) समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः / तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः // (गीता० 14,24) योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः / एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः // (गीता० 6,10) 4. घर-वावारा केई करणीया अत्थि तेण ते सव्वे / झाणद्वियस्स पुरओ चिट्ठन्ति णिमीलियच्छिस्स // (भावसंग्रह० 385) 5. शक्यते न वशीकर्तुं गृहिभिश्चपलं मनः / अतश्चित्तप्रशान्त्यर्थं सद्भिस्त्यक्ता गृहस्थितिः / / (ज्ञानार्णव० 4,10) खपुष्पमथवा शृङ्गं खरस्यापि प्रतीयते / न पुनर्देश-कालेऽपि ध्यानसिद्धिर्गहाश्रमे // (ज्ञानार्णव० 4,17)