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________________ तत्त्वसार और सातवें गुणस्थानवर्ती साधुके मुख्यरूपसे धर्मध्यानका विधान किया है। आगेके गुणस्थानोंमें तो शुक्लध्यान ही होता है। प्रस्तुत तत्त्वसारमें आदिसे लेकर अन्त तक आरम्भ और परिग्रहसे रहित साधुको और उसमें भी ध्यान करने वाले योगीको लक्ष्यमें रखकर ही ध्यानका वर्णन किया गया है। आचार्य देवसेनका स्पष्ट कथन है कि मुख्य धर्मध्यान तो प्रमाद-रहित सप्तम गुणस्थानमें ही होता है। पाँचवें और छठे गुणस्थानमें तो वह उपचारसे ही जानना चाहिए'। इसका कारण यह है कि पाँचवें गुणस्थान तक आतं और रौद्र ध्यान होते हैं और छठे गुणस्थानमें आर्तध्यानके साथ पन्द्रह प्रकारका प्रमाद भी पाया जाता है। जब इनमें दोनोंकी परिणति रहेगी, तब धर्मध्यान कहाँ सम्भव है ? हाँ, यह बात अवश्य है कि मिथ्यात्वीके अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें आर्त रौद्रध्यान और प्रमाद तीव्र होंगे। अविरतसम्यक्त्वीके अनन्तानुबन्धी के उदयके अभावमें और शेष तीन कुषायोंके उदयमें उससे मन्द होंगे। देशव्रतीके शेष दो कषायोंके उदयमें और भी मन्द आर्त-रौद्रध्यान एवं प्रमाद होंगे / जहाँ जिस समय कषायोंका जितना मन्द उदय होगा, वहाँ उस समय संक्लेशकी हानि और विशुद्धिको वृद्धिसे धर्मध्यान होना सम्भव है, यही कारण कारण है कि पूज्यपाद आदि आचार्योंने चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक धर्मध्यान कहा है / किन्तु उसे आचार्य देवसेनने धर्मध्यान न कह कर भद्रध्यान कहा है। इसका कारण यह है कि जितने समय तक कषायकी मन्दतासे परिणामोंमें विशुद्धि बनी रहती है, उतने समय तक तो धर्मध्यान रहता है, किन्तु कषायोंके उदयकी तीव्रता होते ही उसकी प्रवृत्ति पूनः भोग-सेवनकी हो जाती है और प्रमत्त संयतकी प्रवृत्ति प्रमाद रूपसे परिणत हो जाती है। आचार्य देवसेनने भद्रध्यानका लक्षण ही यह कहा है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि छठे और सातवें गुणस्थानका काल केवल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इससे अधिक काल तक साधु न छठे गुणस्थानमें रह सकता है और न सातवें गुणस्थान में / जैसे आँख खुलती और बन्द होती रहती है, अथवा श्वास आती और जाती रहती है, उसी प्रकार साध छठेसे सातवेंमें और सातवेंसे छठे गणस्थानमें आता जाता रहता है। दूसरे शब्दोंमें यह कहा जा सकता है कि भावलिंगी संयमी साधुको प्रवृत्ति अन्तर्मुहूर्तसे अधिक न प्रमाद-युक्त ही रहती है और न प्रमाद-रहित ही रह सकती है। इसी कारणसे प्रमत्त और अप्रमत्तं गुणस्थानका उत्कृष्ट भी काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। छठे और सातवें गुणस्थानवर्ती संयत संसारमें सदा ही पाये जाते हैं, अतः उनकी अपेक्षा दोनों गुणस्थानोंका सर्वकाल कहा गया है। 1. मुक्खं धम्मज्झाणं उत्तं तु पमायविरइए ठाणे / देशविरए पमत्ते उवयारेणेव णायन्वं / / (भावसंग्रह गा० 371) नां भवति / (सर्वार्थसिद्धि० अ० 9 सू० 36 टीका) 3. भद्दस्स लक्खणं पुण धम्मं चिन्तेइ भोयपरिमुक्को। चिन्तिय धम्म सेवइ पुणरवि भोए जहिच्छाए / / (भावसंग्रह. गा० 365) 4. पमत्त-अप्पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा / 19 / एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं / 20 / उक्कस्सेण अन्तोमुहत्तं / 21 / (छक्खंडागम, कालानुयोगद्वार, पुस्तक 5 पृ० 350-351) प्रमत्ताप्रमत्तयो नाजीवापेक्षया सर्वः कालः / एक जीवं प्रति जघन्येनकः समयः / उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः / (सर्वार्थसिद्धि, अ० 1 सू०८) .. . ac.)
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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