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________________ तत्त्वसार स्थितिको भव्यजनपुण्यप्रेरितगमनो लोकालोक-प्रकाशनभास्करः सयोगिकेवलिजिनस्त्रयोदशगुणस्थानवतॊ भवति 13 / उक्त च केवलणाणदिवायरकिरणकलावप्पणासियाण्णाणो। णवकेवललझुग्गमसुजणियपरप्पववएसो // 19 // अथानन्तरं लघुपञ्चचाक्षरस्थितिकोऽयोगिकेवली चतुर्दशगुणस्थानवर्ती भवति / तथाहिव्युपरतक्रियानिवृत्याख्यशुक्लध्यानचतुर्थपादाम्बुपूरप्रक्षालिताशेषाघातिकर्ममलकलङ्को विचरमान्त्यसमये द्विसप्ततिप्रकृतीनां क्षयं अन्त्यसमये त्रयोदशप्रकृतीनां च क्षयं कृत्वा सम्यक्त्वाद्यष्टगुणालङ्कृतो द्रव्यकर्म-भावकर्माञ्जनरहितोऽवगतस्वभावः परमात्मा सिद्धोऽशरीरी ज्ञानमात्रः किञ्चिदूनचरमशरीराकारासंख्यातप्रदेशों लोकाननिवासी समयकानन्तरमेवंविधो निष्कलः सिद्धो भवति 14 / इति चतुर्वशगुणस्थानात्मकश्चतुर्दशविषो धर्मः स्यात् / . एवं पूर्वोक्तविकथा-कषायेन्द्रिय-निद्रा-स्नेहाख्यपञ्चदशधा प्रमादपरित्यागरूपः पञ्चदशधा धर्मो भवति 15 / षोडशकारणभावनात्मकः षोडशप्रकारो धर्मः। तद्यथा-पञ्चविंशतिदोषातीतात्यन्तगृहीतात्मशक्तिदर्शनविशुद्धिः 1 / दर्शनज्ञानचारित्र-तदाराधकविनयोपयुक्ता विनयसम्पन्नता 2 / स्वामियोंके द्वारा सेवित, समवशरण आदि केवल ज्ञान-पूजाको प्राप्त, कुछ कम कोटि पूर्ववर्ष-प्रमाण स्थितिके धारक, भव्यजनोंके पुण्यसे प्रेरित गमनवाले, लोक और अलोकको प्रकाशन करनेके लिए सूर्य-समान सयोगिकेवली जिन तेरहवें गुणस्थानवर्ती होते हैं 13 / कहा भी है - केवलज्ञानरूपी दिवाकर (सूर्य) की किरणोंके समूहसे अज्ञानरूपी अन्धकारके नाश करने वाले, क्षायिक सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य' इन नौ केवललब्धियोंके प्रकट होनेसे जिनको 'परमात्मा' यह संज्ञा प्राप्त हुई है, ऐसे सयोगी जिन होते हैं // 19 // इसके अनन्तर 'अ इ उ ऋ लु' इन पांच लघु अक्षरोंके उच्चारण कालप्रमाण स्थितिके धारक चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली जिन होते हैं। वे व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यानके चतुर्थ पादरूप जलके प्रवाहसे समस्त अघातिया कर्म-मल-कलंकको प्रक्षालन करते हुए द्विचरम समयके अन्तमें बहत्तर प्रकृतियोंका क्षय करके और अन्तिम समयमें तेरह प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिक सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे अलंकृत, द्रव्यकर्म, भावकर्मरूप अंजनसे रहित, शुद्ध आत्म-स्वभावको प्राप्त, औदारिकादि शरीरोंसे रहित अशरीरी, किन्तु ज्ञानरूप शरीरके धारक, चरमशरीरसे कुछ कम आकारवाले असंख्यातप्रदेशी और लोकाग्रनिवासी एक समयके अनन्तर ही इस प्रकारके निष्कल सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं 14 / / इस प्रकार चौदह गुणस्थानरूप चौदह प्रकारका धर्म होता है। इसी प्रकार पूर्वोक्त चार विकथा, चार कषाय, पांच इन्द्रियां, निन्द्रा और स्नेह इन पन्द्रह प्रकारके प्रमादोंके त्यागरूप पन्द्रह प्रकारका धर्म होता है 15 / तीर्थंकर प्रकृतिकी बन्ध करानेवाली सोलहकारण भावनाओंके भाने-स्वरूप सोलह प्रकारका धर्म होता है। इनका विवरण इस प्रकार है-पूर्वोक्त पच्चीस दोषोंसे रहित होनेसे अत्यन्त विशुद्ध आत्मशक्तिकी प्राप्ति होना दर्शनविशुद्धि नामक प्रथम भावना है 1 / दर्शन, ज्ञान, चारित्र
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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