________________ तत्त्वसार त्रीणि गुणवतानि चत्वारि शिक्षावतानीति शोलसप्तकं तथा सागारापेक्षया स्वदाराभक्त-परदारापराङ्मुखरूपं द्विविधं शोलमित्यादिगृहीत-(व्रत-)परिपालनं शीलमुच्यते / एवं विघशीलवतेष्वनतिचारता तृतीया भावना 3 / श्रीसर्वज्ञवीतरागोक्तद्रव्यश्रुतावलम्बोत्पन्नस्वसंवेदनज्ञानं भावश्रुतं द्रव्यश्रुतं वा, पुनः पुनश्चिन्तनमभीक्ष्णज्ञानं तस्मिन्नुपयोगोऽभीषणज्ञानोपयोगश्चतुर्थभावना 4 / जिनोक्तनिश्चय-व्यवहारूपे धर्मे धर्मफले वाऽनुरागः प्रीतिर्वा संयोग एवं पञ्चमी भावना 5 / . आत्मशक्त्यनुसारेण आहारौषधशास्त्राभयदानादिचतुर्विधं दानं दीयते यस्यां सा षष्ठी दानभावना 6 / तथैव बाह्याभ्यन्तररूपं तपस्तप्यते यत्र सा तपोभावना सप्तमी 7 / सर्वज्ञोक्तनयविभागेन क्रमेण भराभेदरत्नत्रयोपलब्धिभावना भवान्तर प्रापणरूपा समाधिः साधु उत्तमः समाधिः साधुसमाधिरष्टमभावना 8 / पूर्वोक्ताचार्योपाध्यायादिदशप्रकारवैयावृत्त्यकरणस्वरूपा नवमभावना 91 अर्हतां सर्वज्ञानां केवलज्ञानाबमन्तगुणेषु सम्यग्मनोवचनकायेरनुष्ठान-स्मरणरूपा भक्तिरर्हद-भक्तिः दशमी भावना 10 / सम्यग्दर्शनाचार-सम्यग्ज्ञानाचार-सम्यक्चारित्राचारसम्यक्तपश्चरणाचार-वीर्याचाराख्यान व्यवहार-निश्चयरूपान् स्वयमाचरन्त्यन्यभव्यजनशिष्यान् आचारयन्त्याचार्यास्तेष्वाचार्येषु भक्तिराचार्य-भक्तिरेकादशभावना 11 / सर्वज्ञोक्तागमाध्यात्मऔर इनके आराधकोंके प्रति विनयसे उपयुक्त रहना दूसरी विनयसम्पन्नता भावना है 2 / तीन गणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन सातको शील कहते हैं। तथा गहस्थकी अपेक्षा स्वदार-सेवन और परदार-पराङ्मुखरूप दो प्रकारके व्रतको भी शील कहते हैं। तथा धारण किये हुए अणुव्रतमहाव्रतोंके भलीभांतिसे निरतिचार परिपालनको भी शील कहा जाता है। इस प्रकारके शीलव्रतोंको अतिचार-रहित पालना तीसरी भावना है 3 / श्री सर्वज्ञवीतराग-प्ररूपित द्रव्यश्रुतके अवलम्बनसे उत्पन्न हुए स्वसंवेदन ज्ञानरूप भावश्रुतको, अथवा द्रव्यश्रुतको पुनः-पुनः (वारंवार) चिन्तन करना अभीक्ष्ण ज्ञान कहलाता है, उसमें निरन्तर अपना उपयोग लगाये रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग नामकी चौथी भावना है 4 / जिन-भाषित निश्चय और व्यवहाररूप धर्ममें तथा धर्मके फलमें अनुराग रखना, प्रीति करना (अथवा संसारसे निरन्तर भयभीत रहना) संवेग नामकी पांचवीं संवेगभावना है 5 / अपनी शक्तिके अनुसार आहार, औषध, शास्त्र और अभयदान आदि चार प्रकारके दानोंका देते रहना, यह छठी दान भावना है। (दानको देने में अपने धनके लोभका त्याग करना पड़ता है, अतः इसे अन्य ग्रंथोंमें त्याग भावना कहा है।) पूर्वोक्त बाह्य और आभ्यन्तर तपोंका तपना सो सातवीं तपोभावना है 7 / सर्वज्ञोक्त नय-विभागके क्रमसे भेदाभेदरूप रत्नत्रय-प्राप्तिकी भावना करना, तथा भवान्तर स्वर्ग-मोक्षके प्राप्त करानेवाली चित्त-शान्ति रखना समाधि कहलाती है। साधु अर्थात् उत्तम समाधिको साधुसमाधि कहते हैं। यह आठवीं भावना है 8 / पूर्वोक्त आचार्य, उपाध्याय आदि दश प्रकारके साधुओंकी वैयावृत्त्य करना नवमी भावना है 9 / अर्हन्त सर्वज्ञदेवोंकी केवल ज्ञान आदि अनन्तगुणोंमें सम्यक् मन वचन कायके द्वारा पूजा-पाठरूप अनुष्ठान करना, उनके गुणोंके स्मरणरूप भक्ति रखना अर्हद्-भक्ति नामकी दशवीं भावना है 10 / सम्यग्दर्शनाचार, सम्यग्ज्ञानाचार, सम्यक्चारित्राचार, सम्यक्तपश्चरणाचार और सम्यक् वीर्याचार नामक निश्चय-व्यबहाररूप पंच आचारोंका जो स्वयं आचरण करते हैं तथा अन्य भव्यजनों और शिष्योंको आचरण कराते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं। उन आचार्यों में भक्ति रखना सो आचार्य-भक्ति नामकी ग्यारहवीं भावना है 11 / सर्वज्ञोक्त आगमों और अध्यात्म शास्त्रोंके ज्ञाता उपाध्याय 'बहुश्रुत' कहलाते हैं। उनमें निष्कपट भावसे भक्ति रखना