SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 20 तत्त्वसार अथ पूर्वोक्त एव सद-वृष्टिः सर्वमोहनीयकर्मोपशमप्रभावान्निर्मलतमभावानुभवोपलब्धप्रथमशुक्लध्याननिजात्मशक्तिरित्येकादशोपशान्तमोहगुणस्थानवासी जीवो भवति 11 / अथानन्तरं एकत्ववितर्कवीचारनाम द्वितीयशुक्लध्यानपावेनान्तर्मुहर्तकालं स्थित्वा निजशुद्धात्मद्रव्ये शुद्धात्मगुणे वा शुद्धपर्याय वैतेषां मध्ये एकतमं द्रव्यं गुणं वा ध्यात्वा च क्षीणमोहः सन् दर्शनावरणषट्प्रकृतयः / ताः का? निद्रा-प्रचले 2 चक्षुर्वर्शनावरणीयमचक्षुर्दर्शनावरणीयमवधिःवर्शनावरणीयं केवलदर्शनावरणीयमिति चतस्रः, इति षट् / ज्ञानवरणकर्मणः पञ्च-मतिज्ञानावरण-श्रुतज्ञानावरणावधिज्ञानावरणमनःपर्ययज्ञानावरणकेवलज्ञानावरणानीति / अन्तरायकर्मणः पश्च-दानान्तराय-लाभान्तराय-भोगन्तरायोपभोगन्तराय-वीर्यान्तरायाख्याः। इति षोडशप्रकृतीनां क्षये क्षीणमोहः प्राप्तानन्तचतुष्टयः क्षीणकषायः द्वादशगुणस्थानवर्ती जिनो भवति 12 / ____ अथानन्तरं तवन्ते सम्प्राप्तसकलविमलकेवलज्ञानः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातीति तृतीयशुक्लध्यानपरायणः चतुस्त्रिंशदतिशयाष्टप्रातिहार्यानन्तचतुष्टय नाम षट्चत्वारिंशद-गुणविराजमानो धरणेन्द्र-चक्रवर्ति-सुरेन्द्र-त्रिलोकेशाविकृतसमवशरणादिकेवलज्ञानपूजाः किश्चिदून कोटिपूर्वप्रमाण इसके पश्चात् औपशमिक भाववाला उपशम श्रेणीका आरोहक वही सम्यग्दृष्टि संयत सर्वमोहनीय कर्मके उपशम कर देनेके प्रभावसे निर्मलतम भावोंके अनुभवसे उपलब्ध एवं प्रथम शुक्लध्यानसे अपनी आत्मिकशक्तिको प्राप्त करनेवाला (सूक्ष्म लोभका उपशम करके उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती होता है 11 / / क्षपक श्रेणीका आरोहक क्षपक दशवें गुणस्थानमें सूक्ष्म लोभका क्षय करनेके अनन्तर एकत्ववितर्क-अवीचार नामक दूसरे शुक्लध्यानके पादके साथ अन्तर्मुहूर्तकालतक बारहवें गुणस्थानमें रहकर अपने शुद्ध आत्मद्रव्यमें, अथवा शुद्ध-आत्मगणमें, अथवा शुद्ध पर्यायमें, इनमेंसे किसी एक के मध्यमें किसी एक द्रव्य, गुण या पर्यायको ध्याता हुआ क्षीणमोही. बनकर सोलह प्रकृतियोंका क्षयकर तदनन्तर समयमें अनन्तचतुष्टयका धारण करनेवाला क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती जिन होता है 12 / प्रश्न-वे सोलह प्रकृतियाँ कौन सी हैं ? उत्तर-दर्शनावरणीयकर्मको छह प्रकृतियाँ-१ निद्रा, 2 प्रचला, 3 चक्षुदर्शनावरण, 4 अचक्षदर्शनावरण, 5 अवधिदर्शनावरण, 6 केवलदर्शनावरण, ज्ञानावरणीयकर्मकी पांच प्रकृतियां१ मातज्ञानावरण, 2 श्रुतज्ञानावरण, 3 अवधिज्ञानावरण, 4 मनःपर्ययज्ञानावरण, 5 केवल ज्ञानावरण, तथा अन्तरायकर्मकी पाँच प्रकृतियाँ-१ दानान्तराय, 2 लाभान्तराय, 3 भोगान्तराय, 4 उपभोगान्तराय और 5 वीर्यान्तराय। ये सब मिलकर (6+5 + 5 = 16) सोलह- प्रकृतियाँ होती हैं। इनमेंसे क्षीणमोही जीव बारहवें गुणस्थानके उपान्त्य समयमें पहिले निद्रा और प्रचलाका क्षय करता है और अन्तिम समयमें शेष चौदह प्रकृतियोका क्षय करता है। ___उक्त प्रकृतियोंका क्षय करनेके अन्तमें सम्पूर्ण विमल केवलज्ञानको प्राप्त हो, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामके तीसरे शुक्लध्यानमें परायण, चौंतीस अतिशय, आठ प्रतिहार्य और अनन्तचतुष्टय, इन छयालीस गुणोंसे विराजमान, धरणेन्द्र चक्रवर्ती और सुरेन्द्र इन तीनों लोकोंके
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy