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________________ तत्त्वसार काः क्षपकाश्चान्ये चतुर्दशपूर्वधराः पृथक्त्ववितर्कवीचारास्वप्रथमपावशुक्लध्यानाभ्यासकौशल्याविर्भूतस्वात्मानुभूतिनिर्विकल्पसमाधिबलशिथिलीकृतघातिकर्माणः निकटीकृतानाधनन्तसंसारसागरपाराः, एवंविधाः अपूर्वकरणगुणस्थानवर्तिनः / उक्तं च- . अंतोमुहुत्तकालं गमिऊण अषापवत्तकरणंते।. पडिसमयं सुझंतो अपुन्वकरणं समुल्लियइ // 17 // अथ स एव सद्-दृष्टि: औपशमिकः क्षायिकश्चेति नव-नवक्षणेष प्रथम-शुक्लध्यानप्रभावेणोपशमित-अपितघातिकर्माविषत्रिंशत-प्रकृतिश्च नवमगुणस्थानानिवृत्तकरणवर्ती भवति (9) / उक्तंच समए समए भिन्ना भावा तम्हा अपुष्वकरणोह। अणियट्टी वि तह च्चिय पडिसमयं एक्कपरिणामो // 18 // स एव सम्यग्दृष्टिरौपशमिकभावः क्षायिकभावश्चेति सूक्ष्मलोभकषायोपशमन-क्षपणकरणोद्यतः तत्पूर्वोक्तशुक्लध्यानप्रथमपादप्रभावेण निर्विकारीकृतनिजात्मपरिणामकौसुम्भवस्त्रमिव सूक्ष्मरागपरिणतः एवंविधः सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानवर्ती भवति 10 / ___ इस गुणस्थानमें कितने ही मोहकमके उपशामक होते हैं और कितने ही उसके क्षय करनेवाले क्षपक होते हैं। ये दोनों ही चतुर्दशपूर्वोके ज्ञाता, शुक्लध्यानके पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथमंपादके धारण करनेके अभ्यासकी कुशलतासे आविर्भूत निर्विकल्प समाधिके बलसे धातिकर्मों की शक्तिको शिथिल करनेवाले, तथा अनादि-अनन्त संसार-सागरके पारको निकट करनेवाले होते हैं / इस प्रकारके अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयत जानना चाहिए 8 / कहा भी है अप्रमत्त संयत अन्तर्मुहूर्तकालतक अधःप्रवृत्तकरणको करके प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त होता है // 17 // ... इसके अनन्तर वही औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयत प्रत्येक नवीननवीन क्षणमें प्रथम शुक्लध्यानके प्रभावसे घातिकर्म आदिको छत्तीस प्रकृतियोंको उपशमश्रेणीवाला उपशम करता हुआ और क्षपक श्रेणीवाला उनका क्षय करता हुआ अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थानवर्ती होता है 9 / कहा भी है यतः आठवें गुणस्थानवी जीवके समय-समयमें अपूर्वता लिये हुए भिन्न-भिन्न परिणाम होते हैं, अतः उसे अपूर्वकरण संयत कहते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें भी इसी प्रकार (अपूर्वकरणके समान) ही प्रतिसमय अपूर्व अपूर्व परिणाम होते हैं। किन्तु उससे इस गुणस्थानमें विशेषता यह है कि एक समयवर्ती जीवोंके समान विशुद्धिवाला एक ही परिणाम होता है // 18 // . इसके पश्चात् औपशमिक भाववाला वही उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायिकभाववाला वही क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयत क्रमशः सूक्ष्मलोभकषायके उपशमन और क्षपण करनेमें उद्यत होता हुआ उसी पूर्वोक्त शुक्लध्यानके प्रथमपादके प्रभावसे निर्विकारीकृत निजात्मपरिणामी होकरके भी धुले हुए कुसुमली रंगके वस्त्रके समान सूक्ष्मरागसे परिणत होता हुआ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवाला होता है 10 /
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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