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________________ तत्त्वसार . ..... सयल पत्तावत्तपमा जो वसइ पमत्तसंजदो होदि। सयलगुणसोलकलिओ महब्बई चित्तलायरणो॥१६॥ अथाप्रमत्तगुणस्थानतिनः संज्वलननोकषायमन्दोदयप्रवर्तिनः भवेयुरप्रमत्ताल्यानगुणस्थानं यवा तदा। बाह्ये पूर्वोक्तसम्यक्त्वत्रिविर्षकतमपूर्वकसकलचारित्रनिरतिचारधारिणोऽन्तरङ्ग रूपातीतधर्मध्यानानुकोटिवत्तिनो निजितेन्द्रियविषय-तीवकषाया द्रव्यश्रुताभ्यासकौशल्याविष्कृतात्मोत्थस्वसंवेदनज्ञानानुभूतिशक्तयः, एवंविधाः अप्रमत्तसप्तमगुणस्थानत्तिनो भवन्ति / (7) / ___ अथ संज्वलन-नोकषायमन्दतरोदये सति अधःकरणप्रवृत्तौ आन्तर्मुहूर्तकालं स्थित्वा अपूर्वा. पूर्वपरिणामकरणावपूर्वकरणप्रवृत्तिलक्षणाष्टमगुणस्थानत्तिनो भवन्ति / तथाहि-तत्रैके उपशम जो महाव्रती साधुके सकल मूलगुण शीलसे संयुक्त होता हुआ भी व्यक्त और अव्यक्त प्रमादमें निवास करता है, वह चित्रल आचरणवाला प्रमत्त संयत है // 16 // . विशेषार्थ-जिस प्रमादका स्वयंको स्पष्ट अनुभव हो, उसे व्यक्त प्रमाद कहते हैं और जिसका स्वयंको स्पष्ट अनुभव न हो वह अव्यक्त प्रमाद कहलाता है। चित्रल नाम चितकबरे हरिण का है। जैसे उसका स्वाभाविक सुनहरा रंग बीच-बीचमें काले धब्बोंसे युक्त होता है, उसी प्रकार महाव्रत आदिका पालन करते हुए भी बीच-बीच में कभी किसी संज्वलन और नोकषायका ती उदय हो जानेसे व्यक्त और कभी उसके मन्द उदयमें अव्यक्त प्रमाद रहता है, तथा कभी इन्द्रियों के खान-पान आदि विषयोंमें एवं निद्रादिके समय व्यक्त प्रमाद पाया जाता है, इसलिए प्रमत्तसंयत. गुणस्थानवर्ती साधुके आचरणको चित्रल आचरण कहा जाता है। . . अब सप्तम अप्रमत्त विरत गुणस्थानका स्वरूप कहते हैं-जब मंज्वलन और नोकषायोंका मन्द उदय प्रवर्तित होता है, तब संयत साधुजन अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती होते हैं / उस समय वे बाहिरसे तो निरतिचार सकलचारित्रके धारक होते हैं और अन्तरंगमें पूर्वोक्त तीन प्रकारके सम्यक्त्वमेंसे किसी एक सम्यक्त्वके धारक, रूपातीत धर्मध्यानकी उच्चकोटिके साधक, इन्द्रियोंके विषय और तीव्र संज्वलनकषायके विजेता, तथा द्रव्यश्रुतके अभ्यासकी कुशलतासे आविष्कृत आत्मोत्पन्न स्वसंवेदन ज्ञातानुभूतिकी शक्तिवाले होते हैं। इस प्रकारके स्वरूपवाले अप्रमत्तविरत नामक सप्तमगुणस्थानवर्ती साघु होते हैं। यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि छठे और सातवें गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है / अतः भावलिंगी साधुके सोते या जागते, बैठे या चलते और खाते-पीते सभी दशाओं में उनके दोनों गुणस्थानोंमें प्रवर्तन होता रहता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो उन्हें द्रव्यलिंगी चतुर्थ-पंचम गुणस्थानवर्ती साधु जानना चाहिए / और यदि सम्यक्त्वका उनके अभाव है तो वे प्रथम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी साधु हैं। अब आठवें गुणस्थानका स्वरूप कहते हैं-संज्वलन और नोकषायोंके मन्दतर (सातवें गुणस्थानकी अपेक्षा और भी अधिक मन्द) उदय होनेपर अधःकरण परिणामकी प्रवृत्तिमें अन्तर्मुहूर्त कालतक स्थित रह कर प्रति समय अपूर्व-अपूर्व विशुद्धिवाले परिणामोंके धारण करनेसे वे ही अप्रमत्त संयत अपूर्वकरण परिणामोंमें प्रवृत्तिस्वरूप अष्टम गुणस्थानवर्ती होते हैं। - इस गुणस्थानमें दो श्रेणी होती हैं-एक उपशम श्रेणी और दूसरी क्षपक श्रेणी / जो तद्भव मोक्षगामी क्षायिक सम्यक्त्वी संयत हैं, वे चारित्र मोहनीयका क्षपण करनेके लिए क्षपक श्रेणीपर चढ़ते हैं / किन्तु जो चारित्रमोहनीयके उपशमन करनेके लिए उद्यत होते हैं, वे श्रेणीपर आरोहण करते हैं।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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