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________________ तत्त्वसार कोपीन-कमण्डलुभिक्षापात्रैकपदृवस्त्रमात्रपरिग्रहः, वर्शन-व्रत-सामायिक-प्रोषधोपवास-सचित्तत्यागरात्रिभक्त-ब्रह्मचर्यारम्भत्याग-परिप्रहत्यागाननुमत्यनुद्दिष्टाहारलक्षणकादशप्रतिमाकृतनिवासः संयतासंयतपञ्चमगुणस्थानवर्ती भवति / तथाहि जो तसवहाउ विरदो अविरदओ तह य थावरवहायो। एक्कसमयम्हि जीवो विरवाविरवो जिणेक्कमई // 14 // अथ चतुर्थकषायसंज्वलनचतुष्कतीवोदयेन विरतप्रमत्ताख्यषष्ठगुणानुयायिनो भवति / तथाहि-प्रवृत्तव्यक्ताव्यक्तप्रमादोदयाः, भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गानुभवस्फुरितप्रभावाः, त्रसस्थावररक्षण-लक्षणसकलचारित्रविराजमानाः, रूपस्थ-रूपातीतधर्मध्यानपरायणा एवंविधा विरतप्रमत्ताख्याः। प्रमादाः कथ्यन्ते चतस्रो विकथा ज्ञेयाः कषाया हि चतुर्विधाः। करणानि च पञ्चैव निद्रा स्नेहो प्रमादिनाम् // 15 // इति श्लोककथितक्रमेण प्रमादाः पञ्चवश / तत्र व्यक्ताव्यक्तरूपाः षष्ठगुणवतिनो भवन्ति / उक्तं च-. होता है, उपशम, क्षमोपशम और क्षायिक इन तीनमेंसे किसी एक सम्यक्त्वसे विराजमान होता है, कौपीन (लंगोटी), कमण्डल, भिक्षापात्र और एक पटमात्र वस्त्रका परिग्रह रखनेवाला उत्कृष्ट श्रावक होता है, तथा दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तत्याग, रात्रिभक्त, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अननुमति और अनुद्दिष्ट आहारको ग्रहण करने रूप ग्यारह प्रतिमाओंमें निवास करनेवाला जाव संयतासंयत नामक पंचम गुणस्थानवर्ती होता है / जैसा कि कहा हैकदा है : जो त्रस जीवोंके वधसे विरत है, तथा स्थावर जीवोंके वधसे अविरत है, किन्तु जिन भगवान्में ही अपनी श्रद्धा-बुद्धि रखता है, वह एक समयमें एक साथ ही 'विरताविरत' कहलाता है // 14 // . . . ... अब छठे गुणस्थानका स्वरूप कहते हैं-चौथे संज्वलन कषायचतुष्कके तीव्र उदयसे जीव प्रमत्तविरत नामके छठे गुणस्थानके धारक होते हैं। उनके व्यक्त और अव्यक्त प्रमादका उदय रहता है, वे भेद और अभेदरूप रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गके अनुभवसे स्फुरायमान प्रभाववाले होते हैं, बस-स्थावर जीवोंके रक्षणस्वरूप सकलचारित्रसे विराजमान होते हैं, रूपस्थ और रूपातीत धर्मध्यानमें परायण होते हैं। इस प्रकारके स्वरूपवाले प्रमत्तविरत नामक छठे गुणस्थानवी जीव होते हैं। अब प्रमाद कहते हैं स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और राजकथा ये चार विकथाएं जाननी चाहिए / क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय हैं. पांचों इन्द्रियां, निद्रा और स्नेह ये पन्द्रह प्रमाद प्रमादी जीवोंके होते हैं / / 15 // इस श्लोकमें कहे गये क्रमसे पन्द्रह प्रमाद जानना चाहिए। इनमें कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त प्रमादवाले छठे गणस्थानवर्ती संयत होते हैं। कहा भी है
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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