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________________ तत्त्वसार गोक्तजीवाजीवादितत्त्वः कर्ममलकलङ्करहितपरमात्मसमानात्मस्वरूपकृतोपादेयबुद्धिः अबिरतभावोदयात् तलवरगृहीततस्करवत् प्रवृत्तपञ्चेन्द्रियविषयः सम्यग्ज्ञानवैराग्ययुक्तः, निःशङ्काद्यष्टाङ्गसम्यक्त्वगुणलाकृतः अन्तरङ्गकृतसंयमपरिणामोखमः आज्ञाविचयापायविचय-विपाकविचयसंस्थानविचयलक्षणधर्मध्यानकृताभ्यासः। एवंविषपरिणामपरिणतोऽविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानवर्ती भवति। तत्रोपशम-क्षयोपशम-क्षायिकसम्यक्त्वत्रयाणां जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन स्थितिमाह--उपशमस्य जघन्योत्कृष्टतोऽन्तर्मुहूर्ता स्थितिः। क्षयोपशमस्य जघन्यान्तर्मुहूर्ता स्थितिः / उत्कृष्टेन षट्षष्ठिसागरोपमा च। क्षायिकस्योत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा कतिपयवर्षकोटिपूर्वाधिका स्थितिः / जघन्येनान्तर्मुहूर्ता च संसारापेक्षया / उक्तं च ___णो इंदिएसु विरदो जीवे थावर-तसे वापि। जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो // 13 // अथ प्रत्याख्यानावरणतृतीयकषायचतुष्कोदयाद्देशसंयतो भवति / तथाहि-बाह्यो निरतिचारत्रसजीवकृतरक्षः कार्यवशात् स्थावरजीववधेषु प्रवृत्तोऽन्तरङ्गे जिनसर्वज्ञोक्तशुद्धबुद्धकर्माअनविनिर्मुक्तरागादिरहितैकदेशभावितात्मानुभूतिः,उपशम-क्षयोपशम-क्षायिकसम्यक्त्वविराजमानः असंयत कहलाता है / वह सर्वज्ञ वीतरागदेवके द्वारा उपदिष्ट तत्त्वोंको स्वीकार करता है, कर्ममल-कलंकसे रहित सिद्ध परमात्माके समान अपने आत्मस्वरूपमें उपादेयबुद्धि रखता है, अविरत- . भावके उदयसे हेय जानते हुए भी पंचेन्द्रियोंके विषयोंमें प्रवृत्त रहता है। जैसे कोतवालके द्वारा पकड़ा गया चोर चोरीको बुरा जानता हुआ और अपनी निन्दा करता हुआ भी अवसर पाते ही पुनः चोरी करने लगता है / यह अविरतसम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्ज्ञान और वैराग्यसे संयुक्त होता है. निःशंकित आदि आठ अंगरूप सम्यक्त्वके गणोंसे अलंकृत होता है. अन्तरंगमें संयम धारण करनेके परिणामोंमें उद्यमी रहता है, आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचयरूप धर्मध्यानोंका अभ्यास करता है / इस प्रकारके परिणामोंसे युक्त जीव अविरतसम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती होता है। अब इन उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक इन तीनों सम्यक्त्वोंकी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदरूप स्थिति कहते हैं-उपशमसम्यक्त्वकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। क्षयोपशमसम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति अ तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट छयासठ सागरोपम है। क्षायिककी जघन्य स्थिति संसारकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट कुछ पूर्वकोटी वर्षसे अधिक तेतीस सागरोपम है / (सिद्धोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति अनन्तकाल है / ) कहा भी है जो जीव इन्द्रियोंके विषयोंसे विरत नहीं है, तथा त्रस और स्थावर जीवोंके घातसे भी विरत नहीं है। किन्तु जो जिनदेव-कथित तत्त्वोंका श्रद्धान करता है, वह जीव अविरतसम्यग्दृष्टि है // 13 // __ अब पंचम गुणस्थानका स्वरूप कहते हैं-तीसरी प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्कके उदय से जीव देशसंयमका धारक होता है / यह देशसंयत बाहिरमें निरतिचार त्रसजीवोंकी रक्षा करता है, कार्यके वशसे स्थावर जीवोंके घातमें प्रवृत्त होता है, अन्तरंगमें सर्वज्ञ जिनदेवप्ररूपित शुद्ध, बुद्ध, कर्मरूप अंजनसे विमुक्त, रागादि भावोंसे रहित, एक देश शुद्ध आत्मानुभूतिसे भावित
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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