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________________ तत्त्वसार M तद्यथा-देवमूढ-समयमूढ-लोकमूढरूपास्त्रयो बोषाः / मूढत्वं अज्ञानत्वम् / जाति-कुलश्वयंरूप-ज्ञान-तपो-बल-शिल्पाभिमानादयो मवा अष्टौ दोषाः। तथा मिथ्यावर्शनं मिथ्याज्ञानं मिथ्याचारित्रं तदाराषकाश्च षडनायतानि भवन्ति / इहलोकभय-परलोकभय-वेदनाभय-मरणभय-त्राणभयअगुप्तिभय-आकस्मिकभयादिसप्तभयग्रसिता शङ्का, जीवदयालक्षणो धर्मो धर्मोऽस्ति न वेति शङ्का 1 / पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषरूपा आकांक्षा 2 / रत्नत्रयाराधक-मलमलिनगात्रोत्तमपात्रेषु घृणा विचिकित्सा 3 / अज्ञानभावो मूढत्वम् 4 / परेषां दोषाणां विद्यमानानामविद्यमानानां वाऽनाच्छादनमपग्रहनदोषः 5 / तीव्रपापकर्मविपाकात् स्वस्वभावात्स्वस्थानाच्च भ्रष्टानां जीवानामस्थितिकरणमस्थापनम् 6 / ऋषि-यति-मुन्यनगारादिचतुर्विधसंघेष्वनादरविशेषोऽवात्सल्यकरणम् 7 / अथेति सामर्थ्येन वा जिनोक्तप्रभावनां न करोतीति यत्र सोऽप्रभावनादोषः / एते पञ्चविंशतिर्योषाः दृष्टः सम्यग्दर्शनस्य भवन्ति / एतैः पञ्चविंशतिभिर्दोषविनिर्मुक्तं सम्यग्दर्शनं निर्मलं भवेत् / - इन पच्चीस दोषोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-मूढता नाम अज्ञानता या विवेक-हीनताका है। ये मूढतारूप दोष तीन हैं-देवमूढता, समयमूढता और लोकमूढ़ता / मद नाम अभिमान, गर्व या अहंकारका है-मदरूप दोष आठ हैं-जातिमद, कुलमद, ऐश्वर्यमद, रूपमद, ज्ञानमद, तपमद, बलमद और शिल्पमद / [इनके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकारके मदोंकी सूचना आदि पदसे की गई है, उन सबका अन्तर्भाव यथासंभव इन आठों ही मदोंमें हो जाता है / ] अनायतन नाम अधर्म और अधर्मके स्थानोंका है। अनायतन दोष छह हैं-मिथ्यादर्शन और मिथ्यादर्शनके. आराधक, मिथ्याज्ञान और मिथ्याज्ञानके आराधक, मिथ्याचारित्र और मिथ्याचारित्रके आराधक / सम्यक्त्वके जो आठ अंग कहे गये हैं, उनके प्रतिपक्षरूप आठ दोष होते हैं। इहलोकभय; परलोकभय, वेदनाभय, मरणभय, त्राण-(रक्षा-) भय, अगुप्ति-(धनादिकी असुरक्षाका) भय और आकस्मिकभय आदि सात प्रकारके भयोंसे ग्रसित या भयभीत रहना शंका दोष है। [यद्यपि सभी जीव किसी न किसी प्रकारके भयसे त्रस्त रहते हैं, तथापि यह सम्यक्त्वका दोष ही है, क्योंकि प्राणीने जो कुछ भी पापकर्म संचित किया हुआ है, उसके उदय आनेपर उसे निर्भयतापूर्वक भोगना ही सम्यक्त्व है। उसे भोगनेसे डरना तो दोष ही है / ] भगवान्ने जीवदयारूप या अहिंसा लक्षण धर्म कहा है, वह यथार्थमें धर्म है, या कि नहीं? इस प्रकार शंका रखना भी शंका दोष है। पांच इन्द्रियोंके विषयोंकी अभिलाषा रखना आकांक्षा दोष है 2 / रत्नत्रय धर्मके आराधक उत्तम पात्र मुनिजनोंके मलसे मलिन शरीरमें घृणाका भाव रखना विचिकित्सा दोष है 3 / विवेकहीनतारूप अज्ञान भाव रखना मढता दोष है४। दूसरे व्यक्तियोंके विद्यमान या अविद्यमान दोषोंका आच्छादन न करना, प्रत्युत इनको प्रकाशित करना अपगृहन दोष है 5 / तीव्र पाप कर्मके उदयसे अपने आत्मस्वभावसे या अपने स्थानसे भ्रष्ट, पतित या चलित हुए, या हो रहे जीवोंको उनके स्थानमें या धर्ममें स्थित या स्थिर नहीं करना अस्थितिकरण या अस्थापन नामका दोष है 6 / ऋषि, यति, मुनि और अनगाररूप चार प्रकारके मुनि संघमें, [या मुनि, आर्यिका, श्रावक श्राविकारूप चार प्रकारके श्रमण संघमें] आदर, प्रीति और वात्सल्य भाव नहीं रखना अवात्सल्यकरण नामका दोष है 7 / आर्थिक और शारीरिक सामर्थ्य होते हुए भी अर्थसे या शारीरिक सामर्थ्यसे जिन-भाषित जिनशासनके माहात्म्यकी प्रभावना न करना, उसका प्रचार और प्रसार न करना अप्रभावना दोष है। ये पच्चीस दोष दृष्टि या सम्यग्दर्शनके होते हैं / इन पच्चीस दोषोंसे विमुक्त होनेपर ही सम्यग्दर्शन निर्मल होता है।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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