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________________ तत्त्वसार तत्सम्यक्त्वं व्यवहार-निश्चयभेदेन, द्विविधम्, उपशम-क्षयोपशमनायिकरूपेण त्रिविधम् / तथाहि तत्त्वार्थभवानं सम्यग्दर्शनमिति व्यवहारसम्यक्त्वम् / उक्तंच नास्त्यहंतः परो देवो धर्मो नास्ति दयां विना।। तपः परं न नैन्यावेतत्सम्यक्त्वलक्षणम् // 3 // द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्ममलकलङ्करहितपरब्रह्मपरमात्मसदृशनिजात्मघवानं रुचिःप्रतीतिः निश्चय आस्तिक्यमिति नानाशब्दानामेकार्य एव हि ज्ञातव्यस्तत्त्वविद्भिरिति निश्चयसम्यक्त्वम् / अप्रत्याख्यान-क्रोध-मान-माया-लोभानां कषायचतुष्टयानामुपशमे सति निर्विकारकर्माजनरहित-निर्विकल्परागादिरहितैकदेशात्मानुभूतिलक्षणस्यान्तरङ्गे बहिरङ्ग चैकदेशेन षड्जीवनिकायानां मध्ये द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रियरूपत्रसजीवरक्षणलक्षणस्य निरतिचारेण मकारत्रय-पञ्चफलोदम्बरादिसप्तव्यसनपरित्यागरूपस्य जीवस्य वर्शनप्रतिमा प्रथमा भवति। तथा चोक्तम् अट्ठइ पालइ मूलगुण, विसणु ण एक्कइ होइ। . सम्मत्ते सुविसुद्धमइ पढमउ सावइ सो जि' // 4 // यह सम्यदर्शन निश्चय और व्यवहारके भेदसे दो प्रकारका है, उपशम, क्षयोपशम और क्षायिकके रूपसे तीन प्रकारका है। अब इनका स्वरूप कहते हैं-जीवादि तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, यह व्यवहार सम्यक्त्वका स्वरूप है / कहा भी है. अरहन्त देवसे श्रेष्ठ अन्य कोई देव नहीं है, दया धर्मसे बढ़कर अन्य कोई धर्म नहीं है और निर्ग्रन्थतासे उत्कृष्ट अन्य कोई तप नहीं है, इस प्रकारका दृढ़श्रद्धान होना, यही व्यवहार सम्यक्त्वका लक्षण है // 3 // / द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप मल एवं कलंकसे रहित परमब्रह्म, परमात्मा-सदृश निज आत्माका श्रद्धान, रुचि, प्रतीति, निश्चय और आस्तिक्य बुद्धि होना-इन सभी नाना शब्दोंका एक ही अर्थ तत्त्ववेत्ताओंको जानना चाहिए-निश्चय सम्यक्त्व है। ___ अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंके उपशम होनेपर निर्विकार, कर्मरूप अंजनसे रहित, निर्विकल्प, रागादिरहित एकदेश आत्मानुभूति लक्षण अवस्था अन्तरंगमें हं नेपर, तथा बहिरंगमें छह जीव-निकायोंमेंसे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियरूप त्रसकायिक जीवोंकी रक्षा-लक्षण एकदेशसे विरतिके होनेपर मद्य, मांस, मधु इन तीन मकारोंके, बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर और पाकर इन पांच उदुम्बर फलोंके तथा द्यूत आदि पूर्वोक्त सात व्यसनोंके त्याग करने वाले और उक्त अष्टमलगणादिका निरतिचार परिपालन करनेवाले जीवके दर्शनप्रतिमा नामकी पहिली श्रावक-प्रतिमा होती है। जैसा कि कहा है ____ जो आठों मूलगुणोंको पालता है, जिसके एक भी व्यसनका सेवन नहीं है और सम्यक्त्वमें अति विशुद्धमति है, अर्थात् सम्यक्त्वका निरतिचार निर्दोष पालन करता है, वही प्रथम प्रतिमाका धारक श्रावक है / / 4 // 1. सावयधम्म दोहा-२६ /
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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