________________ तत्त्वसार पञ्चकवशावुत्पद्यते सम्यग्दर्शनम् / तथा चोक्तम् खयउबसमण-विसोहि य देसण-पाओग्गकरणलद्धीहि / चत्तारि वि सामण्णा करणे सम्मत्त-चारित्तं // 1 // तथाहि-ज्ञानावरणादीनां घातिकर्मणां क्षयोपशमो भावः, विकारकरकलुषितभावाभावात् परिणामविशुद्धता, सर्वोक्तसन्मार्गक्रमोत्पन्नभेदाभेदरत्नत्रयाराघकपरमगुरूपदेशाद्देशना च, मिथ्यादर्शनाद्यष्टकर्मणां सप्तति-विंशतित्रिंशत्कोटाकोटिसागरस्थितीनां यदा लघुस्थितिगतानामेककोटाकोटिमध्यभूतानां लघुता भवति तदा प्रायोग्यलब्धिः स्यात् / एताश्चतस्रो लब्धयः सामान्यरूपाः, यतोऽनेकशः प्राप्ताः। करणलब्धौ सत्यां तु सम्यग्दर्शनं स्यात् / करणलब्धिस्तु अधःकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं चेति / तत्सम्यग्दर्शनं पञ्चविंशतिदोषरहितमुक्तं पूर्वाचार्यः / ते दोषाः के ? मढत्रयादयः। उक्तं च-- . मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि षट् / ___ अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः॥ उसका स्वरूप-विवरण करते हैं-क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि, करणलब्धि इन पांच लब्धियोंके द्वारा सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है / जैसा कि कहा है क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्राय ग्यलब्धि ये चार सामान्य लब्धियां हैं, जो कि भव्य और अभव्योंके लिए समान हैं / किन्तु करणलब्धि भव्य जीवके ही होती है और उसके होनेपर ही सम्यक्त्व और चारित्र प्राप्त होता है // 1 // .. - इन लब्धियोंका अर्थ इस प्रकार है-सम्यक्त्व-प्राप्तिके योग्य ज्ञानावरणादि घाति-कर्मोंका क्षयोपशम भाव होना क्षयोपशमलब्धि है / आत्मामें विकार उत्पन्न करनेवाले कलुषित भावोंका अभाव होनेसे परिणामोंमें निर्मलता आना विशुद्धिलब्धि है। सर्वज्ञ-भाषित सन्मार्ग-प्राप्तिके क्रमसे उत्पन्न हुए भेद-अभेद रूप रत्नत्रयके आराधक परम गुरुके उपदेशकी प्राप्ति होना देशनालब्धि है। मिथ्यादर्शन आदि आठ कर्मोंकी जो उत्कष्ट स्थिति सत्तर, बीस, तीस और तेतीस कोडाकोड़ी सांगरोपम कही गई है-अर्थात् दर्शनमोहनीयकी 70 कोडाकोड़ी, चारित्रमोहनीयकी 40 कोड़ाकोड़ी, नाम-गोत्र कर्मकी 20 कोडाकोड़ी, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मकी 30 कोंडाकोड़ी और आयुकर्मकी 33 सागरोपम-प्रमाण स्थितिमें स्थित कर्मोंकी सत्ता घटकर एक कोड़ाकोड़ीके मध्यगत अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण लघु स्थिति रह जावे तब प्रायोग्यलब्धि होती है / ये चार लब्धियां सामान्यरूप हैं, क्योंकि वे अनेक बार प्राप्त हो चुकी हैं। किन्तु करणलब्धिके होनेपर ही सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। यह करणलब्धि अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप तीन परिणाम-विशेषोंकी प्राप्तिरूप है / इन करण-परिणामोंके होनेपर तत्काल सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है / वह सम्यग्दर्शन पहली दर्शन-प्रतिमामें पच्चीस दोषोंसे रहित होना आवश्यक है, ऐसा पूर्वाचार्योंने कहा है। प्रश्न-वे पच्चीस दोष कौनसे हैं ? उत्तर-तीन मूढ़ता आदि / जैसा कि कहा है तीन मूढ़ताएं, आठ मद, छह अनायतन और आठ शंकादिक, ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष कहे गये हैं।