________________ 20 तत्वसार आपने मानुषी प्रकृतिका अतिक्रमण कर दिया और देवताओंके भी देवता हो गये / ' इसी भावको तत्त्वसारकी गाथा 42 में 'अमाणुसत्तं खणद्वेण' कहकर व्यक्त किया गया है / तत्त्वसारका परवर्ती ग्रन्थोंपर प्रभाव तत्त्वसारके पश्चात् रचे गये ग्रन्थोंपर भी तत्त्वसारका प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। तत्त्वसारकी गाथा 65 में कहा गया है कि जैसे राजाके मारे जानेपर सेना स्वयं विनष्ट हो जाती है, उसीप्रकार मोहराजाके नष्ट होनेपर शेष घातिकर्म स्वयं ही विनष्ट हो जाते हैं। यही बात : आप्तस्वरूपमें कही गई है मोहकर्मरिपो नष्टे सर्वे दोषाश्च विद्रुताः। छिन्नमूलतरोर्यद्वद् ध्वस्तं सैन्यमराजवत् // 7 // तत्त्वसारकी गाथा 33 में कहा गया है कि जबतक योगीका चित्त परद्रव्यमें संलग्न रहता है, तब तक वह उग्र तपको करता हुआ भी मोक्ष नहीं पाता। यही बात ज्ञानार्णवमें भी कही. गई है पृथगित्थं न मां वेत्ति यस्तनोर्वीतविभ्रमः। कुर्वन्नपि तपस्तीवं न स मुच्येत बन्धनैः। (32, 47) भावसंग्रह और तत्त्वसारके रचयिता एक हैं कुछ विद्वान् भावसंग्रह और तत्त्वसारके रचयिता भिन्न-भिन्न दो देवसेन आचार्य मानते हैं / परन्तु ध्यान-विषयक प्रकरणको देखनेपर दोनोंके रचयिता एक ही देवसेन हैं यह बात आगे : दिये जाने वाले प्रमाणोंके आधारपर भलीभांतिसे सिद्ध होती है। भावसंग्रहमें रूपस्थ ध्यानका वर्णन करते हुए कहा गया है रूवत्थं पुण दुविहं सगयं तह परगयं च णायव्वं / सं परगयं भणिज्जइ झाइज्जइ जत्थ पंचपरमेट्ठी // 624 // सगयं तं रूवत्थं झाइज्जइ जत्थ अप्पणो अप्पा। णियदेहस्स बहित्थो फुरंतरवि-तेजसंकासो // 625 // अर्थात्-रूपस्थ ध्यान दो प्रकारका है-स्वगत और परगत / जिसमें पंच परमेष्ठीका ध्यान किया जाय, वह परगत ध्यान है और जिसमें अपने आत्माको ध्याया जावे, वह स्वगत ध्यान है / वह आत्मा निज शरीरसे भिन्न स्फुरायमान सूर्यके सदृश तेजस्वी है। भावसंग्रहमें जो बात दो गाथाओंमें कही गई है, वही तत्त्वसारमें एक गाथा-द्वारा कही गई है। यथा एगं सगयं तच्चं अण्णं तह परगयं पुणो भणियं। सगयं णिय अप्पाणं इयरं पंचावि परमेट्ठी / / 3 // 1. मानुषी प्रकृतिमम्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः / तेन नाथ परमासि देवता श्रेयसे जिन वृष प्रसीद नः // 75 // 2. दिठे विमलसहावे णियतच्चे इंदियत्थपरिचत्ते / जायइ जोइस्स फुडं अमाणसत्तं खणद्धेण // 42 //