________________ प्रस्तावना 21 अर्थात्-तत्त्व दो प्रकारका है-एक स्वगततत्त्व और दूसरा परगत तत्त्व / निज आत्मा स्वगत तत्त्व है और पांचों परमेष्ठी परगत तत्त्व हैं। स्वगत तत्त्वको भावसंग्रहमें गतरूप शब्दसे और तत्त्वसारमें अविकल्प शब्दसे कहा गया है और दोनों ध्यानोंकी प्राप्तिके लिए इन्द्रियों तथा मनके व्यापारोंका और राग-द्वेषका अभाव आवश्यक बताया गया है / यथा. भावसंग्रह-इंदियविसयवियारा जत्थ खयं जंति राय दोसं च / . मणवावारा सव्वे तं गयरूवं मुणेयव्वं // 630 // तत्त्वसार-इंदियविसयविरामे मणस्स गिल्लूरणं हवे जइया। तइया तं अवियप्पं ससरूवे अप्पणो तं तु // 6 // पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि दोनों गाथाओंमें जो शब्द और अर्थगत समानता है, वह दोनोंका एक कर्तृत्त्व सिद्ध करती है। इससे आगे चलकर चार घातिया कर्मोके नष्ट होनेपर केवलज्ञानको उत्पत्तिको भी समान शब्दोंमें बताई गई है / यथा... भावसंग्रह-घाइचउक्कविणासे उप्पज्जइ सयल विमल केवलयं / - लोयालोयपयासं गाणं णिरुपदवं णिच्चं // 665 // तत्त्वसार-घाइचउक्के गट्टे उपज्जइ विमलकेवलं गाणं / . लोयालोयपयासं कालत्तय जाणगं परमं // 66 // उक्त प्रमाणोंके आधारपर भावसंग्रह और तत्त्वसारके रचयिता एक हो देवसेन सिद्ध होते हैं। . आ० देवसेनका समय और अन्य रचनायें यद्यपि तत्त्वसारके अन्तमें अपने नामके अतिरिक्त उसके रचनेका कोई समय नहीं दिया है, तथापि उन्होंने दर्शनसारके अन्तमें जो दो गाथाएँ दी हैं, उनसे उनके समय और रचना-स्थानका पता चलता है / वे दोनों गाथाएं इस प्रकार हैं पुव्वायरियकयाई गाहाई संचिऊण एयत्थं / सिरिदेवसेनगणिणा धाराए संवसंवेण // रइयो दसणसारो हारो भव्वाण णवसए णवए / सिरि पासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए // .. अर्थात्-पूर्वाचार्य-रचित गाथाओंका एकत्र संग्रह करके देवसेन गणीने धारानगरीमें निवास करते हुए यह दर्शनसार जोकि भव्योंके लिये हाररूप है-श्री पार्श्वनाथ-जिनालयमें वि० सं० 990 की माघसुदी दशमीको रचा है। इस प्रकार आ० देवसेनने दर्शनसारके अन्तमें उसके रचना-काल और रचना-स्थानका निर्देश किया है, किन्तु अन्य रचनाओं में कोई निर्देश नहीं किया है। दर्शनसारमें उन्होंने अपनेको 'देवसेनगणी' कहा है। तत्त्वसारमें 'मुनिनाथ देवसेन' कहा है और आराधनासारमें केवल 'देवसेन' कहा है। गणी और मुनिनाथ पदको एकार्थक मान लेनेपर दोनोंके रचयिता एक ही देवसेन सिद्ध होते हैं।