________________ प्रस्तावना रागद्दोसादीहि य डहुलिज्जइ णेव जस्स मणसलिलं / सोणियतच्वं पिच्छइण हु पिच्छइ तस्स विवरीओ॥ 40 // (तत्त्वसार) अर्थात् राग-द्वेषादि कल्लोलोंसे जिसका मनोजल डंवाडोल नहीं होता, किन्तु अलोल बना रहता है, वही पुरुष अपने आत्मतत्त्वको देखता है किन्तु इससे विपरीत पुरुष उस आत्मतत्त्वको नहीं देखता है / पूज्यपाद-रचित इष्टोपदेशका भी प्रभाव तत्त्वसार पर स्पष्ट दिखाई देता है / आत्मा कैसा है ? इसका उत्तर देते हुए इष्टोपदेशमें कहा है स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः / अनन्तसौख्यवानात्मा लोकालोकविलोकनः // 21 // ___ यही बात तत्त्वसारमें इस प्रकार कही गई है दंसण-णाण पहाणो असंखदेसो हु मुत्तिपरिहीणो। सगहियदेहपमाणो णायब्वो एरिसो अप्पा // 17 // अर्थात्-आत्मा स्वसंवेदनसे प्रकट है, अपने ग्रहण किये गये शरीरके प्रमाण है, विनाशरहित नित्य है, अनन्त सुखवाला है और अनन्त ज्ञानदर्शनसे लोक और अलोकको देखनेवाला है। 2 . . अध्यात्मयोगका लाभ बतलाते हुए इष्टोपदेशमें कहा गया है परीषहाद्यविज्ञानादास्रवस्य निरोधिनी। जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा // 24 // .. यही बात तत्त्वसारमें इसप्रकारसे कही गई है मणवयणकाय रोहे रुज्झइ कम्माण आसवो Yणं / . चिरबद्धं गलइ सयं फलरहियं जाइ जोईणं // 32 // * 'अर्थात्-अध्यात्मयोगसे मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिका निरोध होनेपर कर्मोंका आस्रव रुकता है और चिर-संचित कर्मोकी नियमसे शीघ्र निर्जरा हो जाती है। . स्वामी समन्तभद्रके वृहत्स्वयम्भूस्तोत्रका भी प्रभाव तत्त्वसारकी कुछ गाथाओंपर स्पष्ट रूपसे दिखाई देता है। भ० कुन्थुनाथकी स्तुति करते हुए कहा गया है कि घातिया कर्मोंके क्षय करनेपर रत्नत्रयके अतिशय तेजसे आप उसीप्रकार शोभायमान होते हैं जैसे कि अभ्र-रहित आकाशमें प्रदीप्त किरणवाला सूर्य शोभित होता है। इसी भावको तत्त्वसारकी गाथा 30 में 'जह णहे सूरो' कह कर प्रकट किया गया है / भ० धर्मनाथकी स्तुति करते हुए स्वामी समन्तभद्र कहते हैं कि घातिया कर्मोंका क्षय करके 1. हुत्वा स्वकर्मकटुक प्रकृतीश्चतस्रो रत्नत्रयातिशयतेजसि जातवीर्यः / विभ्राजिषे सकलवेदविधेर्विनेता व्यभ्रे यथा वियति दीप्तरुचिर्विवस्वान् // 84 // ... . 2. जह जह मणसंचारा इंदिय विसया वि उवसमं अंति। ..... . तह तह पयडइ अप्पा अप्पाणं जह जहें सूरो॥३०॥