________________ तत्त्वसार जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणइ झाणस्स / / 75 / / उत्तरार्ध / भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स / तं अप्पसहाव ठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी // 76 // अज्जवि तिरयण सुद्धा अप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं। लोयंहिय देवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदि जंति // 77 // (मोक्षप्राभृत) . अर्थात्-जो यह कहते हैं कि आज ध्यान करनेका काल नहीं हैं, वे अज्ञानी हैं। आज इस भरत क्षेत्रमें दुषमाकालमें भी आत्मस्वभावमें स्थित साधुके धर्मध्यान होता है और रत्नत्रयसे विशुद्ध जीव आत्माकर ध्यानकरके इन्द्रपना या लौकान्तिक देवपना पाकर वहाँसे च्युत होकर निर्वाणको जाते हैं। इसी बातको तत्त्वसारमें इन शब्दोंके द्वारा प्रकट किया गया है संका कंखा गहिया विसयपसत्था सुमग्गपन्भट्ठा। ... एवं भणंति केई णहु कालो होइ झाणस्स // 14 // अज्जवि तिरयणवंता अप्पा झाऊण जंति सुरलोयं / तत्थ चुआ मणुयत्ते उप्पज्जिय लहहि णिव्वाणं // 15 // अर्थात्-शंका-कांक्षासे गृहीत, विषयोंसे वशीभूत और सन्मार्गसे भ्रष्ट कितने ही लोग कहते हैं कि यह ध्यानका काल नहीं है / किन्तु आज भी रत्नत्रयधारी जीव आत्माका ध्यान करके देवलोकमें जाते हैं और वहाँसे विदेहक्षेत्रके उत्तम मनुष्योंमें उत्पन्न होकर निर्वाण प्राप्त करते हैं। पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि दोनों ग्रन्थोंकी गाथाओंमें शब्द और अर्थगत बिलकुल समानता है। ___उक्त उद्धरणोंसे यह बात भली-भांतिसे सिद्ध है कि तत्त्वसार पर आचार्य कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंका स्पष्ट प्रभाव है। ... ___इसी प्रकार योगका पर्यायवाचक जो समाधि शब्द है, उसका तन्त्र या रहस्यको प्रकट करने वाले पूज्यपाद-रचित समाधितन्त्रका भी अनुसरण तत्त्वसारमें देखा जाता है / यथा अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं ततः / क्व रुष्यामि क्क तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः // 46 // (समाधितन्त्र) चेयणरहिओ दीसइ ण य दोसइ इत्थ चेयणासहिओ। . तम्हा मज्झत्थोहं रूसेमि य कस्स तूसेमि // 36 // (तत्त्वसार) दोनों उद्धरणोंका एक ही अर्थ है-जो कुछ दिखाई देता है वह चेतना-रहित अचेतन पुद्गल है और जो चेतना-सहित जीव है. वह अदश्य है-दिखाई नहीं देता। अतः मैं किससे रुष्ट होऊँ और किससे सन्तुष्ट होऊँ ? इस कारण मैं मध्यस्थ होता हूँ। 2 रागद्वेषादि कल्लोलेरलोलं यन्मनो जलम् / स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत्तत्त्वं नेतरो जनः // 35 // (समाधितन्त्र)