________________ प्रस्तावना फास रस रूव गंधा सद्दादीया य जस्स पत्थि पूणो। सुद्धो चेयणभावो णिरंजणो सो अहं भणिओ // 21 // समयसार और तत्त्वसार दोनोंकी उक्त गाथाओंका अर्थ एक ही है कि निश्चयनयसे जीवके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, शब्द आदि कुछ भी नहीं है, क्योंकि ये पुद्गल द्रव्यके परिणाम हैं। इसी प्रकार कर्मके बन्धस्थान, उदयस्थान, स्थिति बन्धस्थान, संक्लेशस्थान आदि भी नहीं हैं। न मार्गणास्थान हैं, न गुणस्थान हैं, न जीवस्थान हैं, न क्रोध, मान, माया, लोभ, लेश्यादि भी नहीं हैं, क्योंकि ये सब कर्मजनित हैं। इसी प्रकार कला, संस्थान संहनन आदि भी नहीं है। समयसारमें जीव और कर्मके सम्बन्धको जिस प्रकार दूध और पानीके समान सहजात बतलाया गया है, ठीक उसीके अनुसार तत्त्वसारमें भी कहा गया है / यथासमयसार-एदेसि सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्यो। . ण त हुंति तस्स ताणि दु उवओग गुणाधिको जम्हा // 6 // तत्त्वसार-एदेसि सम्बन्धो णायव्वो खीर-णीरणाएण।। एकत्तो मिलियाणं णिय-णियसव्भाव जुत्ताणं // 23 // . दोनों गाथाओंका भाव एक ही है। समयसारमें जीवको पुरुषकी अपेक्षा उपयोग गुणसे अधिक कहा है और तत्त्वसारमें जीव-कर्मके एक साथ मिलनेपर भी दोनोंको निज-निज स्वभावसे युक्त कहा गया है। समयसारमें कहा गया है कि जिसके हृदयमें परमाणुमात्र भी राग विद्यमान है, वह सर्व आगमका वेत्ता हो करके भी अपनी आत्माको नहीं जानता है। इसी बातको तत्त्वसारमें इस प्रकार कहा गया है कि जब तक योगी अपने मनमें परमाणुमात्र भी राग रखता है, उसे नहीं छोड़ता, तबतक परमार्थका ज्ञाता भी वह श्रमण कर्मोसे नहीं छूटता है। यथासमयसार-परमाणुमित्तयं पि हु रायादीणं तु विज्जदे जस्स। .. .ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरोवि // 212 // तत्त्वसार-परमाणुमित्तरायं जाम ण छंडेइ जोइ समणम्मि। * सो कम्मेण ण मुच्चइ परमट्ठवियाणओ समणो // 53 // पाठक स्वयं अनुभव करेंगे कि दोनों गाथाओंका भाव एक ही है। समयसारमें कहा गया है कि निश्चयनयमें संलीन मुनि ही निर्वाणको पाते हैं। यथा-णिच्छयणयसल्लीणा मुणिणो पावंति णिव्वाणं / (गाथा 291 उत्तरार्ध) इसी बातको तत्त्वसारमें इस प्रकार कहा गया है- जं अल्लीणा जीवा तरंति संसारसायरं विसमं / (गाथा 73 पूर्वार्ध) अर्थात् निश्चयनयका आश्रय करनेवाले जीव इस विषम संसार-सागरके पार उतरते हैं। जो लोग वर्तमानकालमें ध्यानका निषेध करते हैं, उनको फटकारते हुए आ० कुन्दकुन्द कहते हैं