________________ 16 तत्त्वसार - अतः साधकका कर्तव्य है कि जब भी गृहस्थीको आरम्भ आदि कार्योंसे अवकाश मिले और जिस समयको अनुकूल समझे, उस समय पद्मासन से बैठकर पाँचों धारणाओंके रूपमें पिण्डस्थ ध्यान करे। इसके पश्चात् परमेष्ठी वाचक मंत्रोंका जाप करे। पुनः रूपस्थ ध्यान करते हुए रूपातीत ध्यान करे। यहां यह ज्ञातव्य है कि आ० देवसेनने इन पिण्डस्थ आदि ध्यानोंका वर्णन सप्तम गुणस्थान . के अन्तर्गत कहा है। इसका कारण यह है कि वे इसके पूर्व पांचवें और छठे गुणस्थानमें उपचार से धर्मध्यान कहते हैं और मुख्य धर्मध्यानका अधिकारी वे सप्तम गुणस्थानवर्ती ध्यानस्थ साधुको ही मानते हैं / (देखो भावसंग्रह गाथा 371) जब ध्यानमें चित्त न लगे तो अध्यात्मशास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिए। क्योंकि अन्तरंग तपोंमें ध्यानके पूर्व स्वाध्याय तप कहा है। - तत्त्वसार पर पूर्ववर्ती ग्रन्थोंका प्रमाव जिस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्दने पूर्वगत अनेक प्राभूतोंका सार खींचकर समयप्राभूत या समयसार, प्रवचनसार, नियमसार और अनेक प्राभृतोंकी रचना की है, उसीप्रकार आचार्य देवसेनने अपने समयमें उपलब्ध भगवती आराधनाका सार खींचकर आराधनासारकी, तथा समयसार, परमात्मप्रकाश और योग-विषयक समाधितन्त्र, इष्टोप्रदेश आदि अनेक ग्रन्थोंका सार खींचकर प्रस्तुत तत्त्वसारकी रचनाकी है, यह बात आगेके विवरणसे स्पष्ट ज्ञात होती है / यथा जीवस्स णत्थि वण्णो णवि गंधो णवि रसो णविय फासो। णवि रूवं ण शरीरं णवि संठाणं ण संहणणं // 55 // जीवस्स णत्थि रागो णवि दोसो णेव विज्जदे मोहो। णो पच्चया ण कम्म णोकम्मं चावि से पत्थि // 56 // जीवस्स पत्थि वग्गो ण वग्गणा व फड्ढया केई।। णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभायठाणाणि // 57 // . जीवस्स णत्थि केई जोयट्ठाणा य बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गंणट्ठाणया केई // 58 // णो दिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। व विसोहिट्ठाणा णो संजम लद्धिठाणा वा // 59 // णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स / जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा // 60 // . -समयसार, अजीवाधिकार यही बात तत्त्वसारमें इस प्रकार कही है जस्स ण कोहो माणो माया लोहो य सल्ल लेस्साओ। जाइ जरा मरणं विय णिरंजणो सो अहं भणिओ // 19 // णत्थि कला संठाणं मग्गण गुणठाण जीवठाणाई। ण य लद्धि-बंधठाणा णोदयठाणाइया केई // 20 //