________________ टीकाकारकी प्रार्थना प्रत्येऽस्मिन् भावनात्मे पुनरुक्तस्य दूषणम् / भावविद्धिर्न तवग्राह्यं ज्ञान-वैराग्यभूषणम् // 1 // इति तत्वं स्व-परगतं प्रोक्तं संक्षेपमात्रतोऽपि मया। सम्यग् यदि विस्तरतो ते जिनसन्मतिः * सत्यम् // 2 // इति कतिपयवर्गणिताऽध्यात्मसारा परमसुखसहाया तत्त्वसारस्य टीका। अवगतपरमार्थाः शोध्य चैनां पठन्तु सुरमृगपतिकण्ठे हारभूतां सुरम्याम् // 3 // यावन्मेरु-मही-स्वर्ग-कुलानि-गगनापगाः। तत्त्वसारस्य टोकेयं तावन्नन्दतु भूतले // 4 // इति तत्त्वसारविस्तारावतारेऽत्यासन्नभव्यजनानन्दकरे भट्टारकधीकमलकीतिदेव-विरचिते कायस्थ माथुरान्वयशिरोमणीभूत-भव्यवरपुण्डरीकामरसिंहमानसारविन्ददिन करे सिद्धस्वरूपवर्णनं नाम षष्ठं पर्व समाप्तम् / सिद्धाः सिद्धि प्रवास्ते स्युः प्रसिद्धाष्टगुणैर्युताः। भोऽमसिंह भो शुद्धाः प्रसिद्धाः जगतां त्रये // 5 // (इत्याशीर्वादः ) भावनारूप इस ग्रन्थमें पुनरुक्तका दोष भाववेत्ता जनोंको ग्रहण नहीं करना चाहिए। क्योंकि ग्राह्य तत्त्वका वार-वार कथन ज्ञान और वैराग्यका भूषण है // 1 // इस प्रकार स्वगत और परगत तत्त्वको मुझ टीकाकारने भी संक्षेपरूपसे कहा है। इस तत्त्वको तो विस्तारसे सत्यरूपमें श्री सन्मतिजिन ही कह सकते हैं // 2 // .. ___ इस प्रकार अध्यात्मसारभूत और परम सुखमें सहायक, यह तत्त्वसारकी टीका मैंने कुछ वों के द्वारा वर्णनकी है। जो परमार्थके वेत्ता हैं, वे, अमरसिंहके कण्ठमें हारभूत इस सुरम्य रचनाको यदि कहीं कोई अशुद्धि हो तो शोध करके पढ़ें // 3 // ___जब तक इस भूतलपर मेरुपर्वत, पृथ्वी, स्वर्ग कुलाचल, आकाश-गंगा हैं तब तक तत्त्वसारको यह टीका स्थायी रहे // 4 // इस प्रकार अतिनिकट भव्यजनोंको आनन्दकारक, भट्टारक श्री कमलकीत्तिदेव-विरचित, कायस्थ माथुरान्वय शिरोमणिभूत, भव्यवर पुण्डरीक अमरसिंहके मानस-अरविन्दको विकसित करनेके लिए दिनकरके समान इस तत्त्वके विस्तारावतारमें सिद्धोंके स्वरूपका वर्णन करनेवाला यह छठा पर्व समाप्त हुआ। हे अमरसिंह ! जो तीन जगत्में प्रसिद्ध हैं, प्रसिद्ध आठ गुणोंसे संयुक्त हैं ऐसे शुद्ध सिद्ध तुझे सिद्धि प्रदान करने वाले हों // 5 // (इति आशीर्वादः)