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________________ तत्वसार 139 सारम् / कथम्भूतम् ? 'रइयं रचितं निर्मापितं प्रथितम् / केन रचितम् ? 'मुणिणाह देवसेणेण' मुनिनाथदेवसेनेन, मुनिनां नाथो मुनिनाथः। 'दिव कोगयां' दीव्यति स्वरूपे देवः, सा लक्ष्मीः केवलज्ञानादिस्तस्या इन: स्वामो सेनः, देवश्चातो सेलच देवसेनः, मुनिनायश्चासो देवसेनश्च मुनिनाथदेवसेनः / मुनिना अथशब्दो मङ्गलार्थमित्युक्तेऽत्र परमसुखामृतरसपिपासेन धीममरसिंहेनोक्तम्-भो भट्टारक श्रीकमलकीतिमुने! पत्र मङ्गलस्याबसरः कः ? इति पृष्टे सति उत्तरमाह'आदौ मध्येऽवसाने च मङ्गलं भाषितं दुः' इतिन्यायाद देवसेनेन मुनिना प्रोक्तमिति / 'जो सद्दिट्ठी भावई' य एव सम्यग्दृष्टिः संशयादिता सती समीचीना दृष्टियंस्थासो सम्यग्दृष्टिः सन् भावयत्यनुभवति / 'सो पावह सासयं सोक्तं स एव सम्यग्दृष्टिः प्राप्नोति / कि तत् ? सौल्यमतीन्द्रियम् / पुनश्च कथम्भूतम् ? शाश्वतमविनश्वरं स्वाधीनं सुखं स्वरूपं प्राप्नोतीति भावार्थः॥४॥ प्रश्न-वह तत्त्वसार किसने रचा है ? उत्तर-मुनिनाथ देवसेनने रचा है, निर्माण किया है और ग्रथित किया है। मुनियोंके नाथ या स्वामीको मुनिनाथ कहते हैं 'दिवु' धातु क्रीडार्थक है, जो स्वरूपमें क्रीड़ा करता है, उसे देव कहते हैं। 'सा' नाम लक्ष्मीका है, जो केवलज्ञानादि रूप 'सा' लक्ष्मीका इन अर्थात् स्वामी है, वह सेन कहलाता है। इस प्रकार जो देव भी है और सेन भी है, तथा मुनिनाथ भी है, उस मुनिनाथ देवसेनने इस तत्त्वसार ग्रंथको रचा है। 'अथ' शब्द मंगलार्थक है, अतः 'मुनिना + अथ संधि करने पर देवसेन मुनिने इसे रचा है। - यहाँ पर परमसुखामृत रसके पिपासु श्री अमरसिंहने कहा-हे भट्टारक कमलकीत्ति मुनि ! यहाँ मंगलका क्या अवसर है ? ऐसा पूछनेपर टीकाकार उत्तर देते हैं.. 'ज्ञानियोंने ग्रंथके आदिमें, मध्यमें और अन्तमें मंगल करनेको कहा है' इस न्यायसे श्री देवसेन मुनिने ग्रंथके अन्तमें मंगलवाची 'अथ' शब्द कहा है। 'जो सद्दिट्ठी भावइ' अर्थात् जो सम्यग्दृष्टि है, जिसकी दृष्टि संशयादिसे दूर होकर समीचीन हो गई है, ऐसा सम्यग्दृष्टि होकर जो इस तत्त्वसारको भावना करता है, अनुभव करता है, 'सो पावइ सासयं सोक्खं' अर्थात् वही सम्यग्दृष्टि प्राप्त करता है। प्रश्न-किसे प्राप्त करता है ? .. उत्तर-अतीन्द्रिय सुखको प्राप्त करता है। प्रश्न-पुनः कैसे सुखको प्राप्त करता है ? उत्तर-शाश्वत, अविनश्वर और स्वाधीन स्वरूपवाले सुखको प्राप्त करता है। यह इस गाथाका भावार्थ है // 7 //
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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