________________ तत्वसार .. ... 137 ___टीका-'जंबउ सग-परगयं तच्छ' इत्यादि व्याल्यानं करोत्युत्तरोत्तरकर्ता भट्टारक श्रीकमलकीतिरिति-सत्तत्वं मन्दतु निविघ्नं यथा भवति तथा चिरकालस्थायी भूपादित्यर्थः / कथम्भूतं तत्त्वम् ? स्वगत-परगतं स्वगततत्त्वं परगततत्त्वं च शास्त्रादावेवोक्तस्वरूपम् / इत्युक्ते तत्त्वपरिज्ञानलालसेन श्रीअमरसिंहेनोक्तम्-भो भगवन्मुने! तत्किरूपम् ? इत्याहतत्स्वगततत्त्वमात्मस्वरूपं परगततत्त्वं पंचपरमेष्ठिस्वरूपमिति / पुनश्च कयम्भूतम् ? भव्यजीवशरणम्-मव्याश्च ते जीवाश्च भव्यजीवस्तेषामेव शरणीभूतं तस्वम् / पुनः कथम्भूतं तत् ? 'जं अल्लोणा जीवा तरंति संसारसायरं विसम' यत्तस्वमालीनाः-आ समन्ताल्लोनास्तन्मयाः सन्तो जीवा भम्पजीवास्तरन्ति संसारसागरं संसारश्चासौ सागरस्तम् / कथम्भूतम् ? विषमम्, सर्वजनानन्दन भोः श्रीअमरसिंहनन्दन लक्ष्मण ! दुस्तरत्वाद् विषम एव समो भवति यन्माहात्म्यात्तदेवोपादेय बुद्धपा भावनीयं तत्वविदा पुरुषेण मनसि चिन्तनीयं वचसा वक्तव्यं कायेनाचरणीयमिति भावार्थः // 73 // टोकार्थ-'णंदउ सग-परगयं तच्चं' इत्यादि गाथाका उत्तरोत्तर ग्रन्थकर्ता भट्टारक श्री कमलकोत्ति व्याख्यान करते हैं-वह तत्त्व 'नन्दतु' अर्थात् निर्विघ्न रहे, और चिरकाल तक स्थायी रहे। . प्रश्न-कैसा तत्त्व स्थायी रहे ? उत्तर-स्वगत तत्त्व और परगत तत्त्व, जिनका कि स्वरूप इस शास्त्रके आदिमें कहा गया है। ऐसा कहने पर तत्त्व-परिज्ञान के अभिलाषी श्री अमरसिंहने कहा-हे भगवन् मुनि ! वह तत्त्व किस रूप है ? इसका उत्तर दिया कि स्वगततत्त्व आत्मस्वरूप है और परगततत्त्व पंचपरमेष्ठिस्वरूप है। प्रश्न--पुनः वह तत्त्व कैसा है ? उत्तर-भव्य जो जीव हैं उनका शरणभूत है। प्रश्न-पुनः वह तत्त्व कैसा है ? उत्तर-'जं अल्लीणा जीवा तरंति संसारसायरं विसम' अर्थात् जिस तत्त्वमें सर्व प्रकारसे तल्लीन या तन्मय हुए भव्यजीव संसाररूप समुद्रको तिर जाते हैं। प्रश्न-वह संसार-सागर कैसा है ? उत्तर-विषम है, दुस्तर एवं भयानक है / हे सर्वजनोंको आनन्दित करने वाले श्री अमरसिंहके नन्दन लक्ष्मण ! जिस तत्त्वके माहात्म्यसे. दुस्तर और विषम भी संसार-सागर सुतर और सम हो जाता है, उसे ही तत्त्ववेत्ता पुरुषको उपादेयबुद्धिसे मनमें चिन्तन करना चाहिए, वचन कहना चाहिए और कायसे आचरण करना चाहिए / यह इस गाथाका भावार्थ है // 73 //