________________ तत्त्वसार 135 अथानन्तरं मुक्तजीवानां संख्यामाने शङ्कायां सत्यागीदेवसेनदेवा माहुरितिमूलगाथा-असरीरा जीव घणा चरमसरीरा हवंति किंचूणा / जम्मण-मरण-विमुक्का णमामि सव्वे पुणो सिद्धा // 72 // संस्कृतच्छाया-अशरोरा जीवधनाश्चरमशरीरा भवन्ति किञ्चिदूनाः। जन्म-मरण विमुक्ता नमामि सर्वान् पुनः सिद्धान् // 72 // टीका-'अशरीरा जीवघणा' इत्यादि व्याख्यान क्रियते टीकाकर्ता मुनिना। 'अशरीरा जीवा' द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मरहिता अमूर्ता सिद्धा ये जातास्ते कतिसंख्योपेता? घना बहवो जाताः। पुनश्च कथम्भूताः ? 'चरमसरीरा हवंति किंचूणा' क्रिश्चिदूनाकारा भवन्ति / कस्मात् ? चरमशरीरात्पूर्वभवगृहीतमनुष्यशरीराच्छकाशान्नना भवन्ति मुखोवरकर्णघ्राणस्थानेषु रिक्ता भवन्तीति / पुनः किविशिष्टाः ? 'जम्मण-मरण-विमुक्का' जन्म-मरण-विमुक्ता जन्म चोत्पत्तिः, मरणं च जन्ममरणे, ताम्यां विमुक्ता रहिता ये सिवा अर्थाज्जरयापि त्यक्ताः। 'णमामि सव्वे बहुरि सिद्ध कैसे हैं? भा० व०-'अंशरीरा जीवा' द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्म रहित अमूर्त ऐसे सिद्ध भये ते कितने हैं ? घने बहुत अनंत ऐसे। बहुरि कैसे हैं सिद्ध ? किंचित् ऊन आकार होय हैं ? काहे तें ऊन होय हैं ? चरम शरीरतें / पूर्वभव गृहीत मनुष्य शरीरतें न्यून होय हैं, मुख, उदर, कर्ण, घ्राण स्थान तिनि विर्षे रीता होय है। बहरि कैसे होय हैं? जन्म-मरण-रहित / ऐसेजे सिद्ध तिन सर्वनिळू नमस्कार करूं हूँ। इहां टीकाकार ऐसा लिखा है-जों संसार-भीरु अमरसिंह, तूं भी सिद्धनिकू नमस्कार करि / असा आशय जाननां // 72 // - अब इसके अनन्तर मुक्त जीवोंकी संख्या सम्बन्धी ज्ञानमें शंका होने पर उसका समाधान करते हुए श्री देवसेनदेव कहते हैं * अन्वयार्थ-(पुणो ) पुनः (सिद्धा जीवा ) वे सिद्ध जीव ( असरीरा) शरीर रहित हैं, (घणा) अर्थात् बहुत घने हैं, (किंचणा) कुछ कम (चरम सरीरा) चरम शरीर प्रमाण हैं, (जन्म-मरण-विमुक्का) जन्म और मरण से रहित हैं। ऐसे ( सव्वे सिद्धा ) सर्व सिद्धोंको (णमामि ) मैं नमस्कार करता हूँ। --- टीकार्थ-'असरीरा जीवघणा' इत्यादि गाथाके अर्थका टीकाकार मुनि व्याख्यान करते हैं-'असरीरा जीवा' जो जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नो कर्मसे रहित अमूर्त सिद्ध हो गये हैं, वे कितने हैं ? घन अर्थात् बहुत हैं-अनन्त हैं। प्रश्न-पुनः कैसे हैं ? उत्तर-'चरमसरीरा हवंति किंचूणा' अर्थात् कुछ कम आकार वाले होते हैं। प्रश्न-किससे कुछ कम आकार वाले होते हैं ? .. , उत्तर-चरम शरीरसे / पूर्व भवमें ग्रहण किये गये मनुष्य-शरीरसे न्यून होते हैं, क्योंकि वे मुख, उदर, कान और घ्राण स्थानोंमें जो पोल होती है उससे रहित हो जाते हैं।