SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तस्वसार अथानन्तरं स सिद्धः सिद्धालये कियन्तं कालं तिष्ठतीति कथयन्ति श्रीदेवसेनदेवाःमूलगाथा-धम्माभावे परदो गमणं णत्थि त्ति तस्स सिद्धस्स / _ अच्छइ अणंतकालं लोयग्गणिवासिओ होउ // 70 // संस्कृतच्छाया-धर्माभावे परतो गमनं नास्तीति तस्य सिद्धस्य / तिष्ठत्यनन्तकालं लोकापनिवासी भूत्वा // 70 // टीका-'परदो गमणं णथि त्ति तस्स सिद्धस्स' इति विशेषेण विवृणोति टीकाकार:तस्य पूर्वोक्तस्य सिद्धस्य परतो गमनं नास्तीति, परस्मिन् परस्मात् वा परतः। कस्मात् ? लोकाप्रतः सकाशात / कस्मिन सति ? 'धम्माभावे धर्माभावे सति, धर्मद्रव्यस्याभावे / तहि कि करोतीति ? 'अच्छइ अणंतकालं' तत्रैव कालमनन्तं तिष्ठति / किं कुर्वन् सन् ? 'लोयग्गणिवासियो होउ' लोका निवासी भूत्वा, लोकाने निवासोऽस्यास्तीति मत्वा लोकाग्रगमने यत्नः कर्तव्यो भव्यजनैरिति भावः॥७०॥ . आगे सिद्धनिके लोकका अग्रभाग विर्षे तिष्ठनेका हेतु कहै हैं भा० व०-धर्मद्रव्यका अभावकू होत संत तिस सिद्धक लोकाग्र जो सिद्धशिला तातें अन्यत्र गमन नाहीं है। अर लोकाग्रनिवासी होय करि अनंतकाल सिद्धालय विर्षे तिष्ठे है। हो भव्य हो ? तुम भी लोकाग्र निवास होनेका यत्न करहु // 70 // अब इसके पश्चात् वे सिद्ध परमात्मा सिद्धालयमें कितने काल तक रहते हैं, यह श्री देवसेनदेव प्रतिपादन करते हैं अन्वयार्थ-(तस्स सिद्धस्स) उस सिद्ध परमात्माका (धम्माभावे) धर्मद्रव्यका अभाव होनेसे (परदो) लोकसे परे अलोकमें (गमणं णत्थि त्ति) गमन नहीं है, इस कारण (लोयग्गणिवासिओ होउ) लोकाग्र निवासी होकर वहाँ (अणंतकाल) अनंत काल तक (अच्छइ) रहते हैं। टीकार्थ-'परदो गमणं णत्थि त्ति तस्स सिद्धस्स' इत्यादि गाथाका टीकाकार विवरण - करते हैं उस पूर्वोक्त सिद्ध जीवका परे अर्थात् लोकके अग्रभागसे आगे गमन नहीं है। प्रश्न-क्यों गमन नहीं हैं ? उत्तर- 'धम्माभावे' अर्थात् धर्मद्रव्यका अभाव होनेसे गमन नहीं है। प्रश्न-तो फिर सिद्ध जीव क्या करते हैं ? उत्तर-'अच्छइ अणंतकालं' अर्थात् लोकाग्रमें वहीं अनन्तकाल तक रहते हैं। प्रश्न-क्या करते हुए रहते हैं ? उत्तर-लोकाग्रके अर्थात् सिद्धालयके निवासी होकर रहते हैं। लोकके अग्रभागमें जिसका निवास हो उसे लोकाग्रनिवासी कहते हैं। ऐसा जानकर लोकाग्रमें जानेका यत्न भव्यजनोंको करना चाहिए // 7 //
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy