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________________ 132 तत्त्वसार . टीका-'जाणइ पेच्छई' इत्यादि, पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते टीकाकृता मुनिना / तद्यथा-जानाति पश्यति युगपदेककालम् / किं तत् ? 'लोयालोयं सव्वं' सर्व लोकालोकम् / लोकइचालोकश्च लोकालोकं द्वन्द्वकत्वस्य स्मरणात् / कथं जानातीति ? 'करणकमरहियं' करणक्रमरहितम, येन क्रियते तत्करणम्, क्रमोऽनुक्रमः, करणं च क्रमश्च करणक्रमी, ताभ्यां रहितं यथा भवति तथा युगपज्जानाति पश्यति वेत्यर्थः / पुनः किं जानाति ? मुत्तामुत्ते दवे' मूर्तानि द्रव्याणि मूर्तपुदगलद्रव्यमेकम्, संसारापेक्षया जीवद्रव्यमपि मूरीम्, द्रव्याथिकनयेनामूर्तम् / शेषाणि चत्वारि धर्माधर्माकाशकालानि द्रव्याणि सर्वथाऽमूर्तानि। पुनः कथम्भूतानि ! 'अणंतपज्जायगुणकलिए' अनन्तपर्यायगुणकलितानि, पर्यायश्च गुणाश्च पर्यायगुणाः, अनन्ताश्च ते पर्यायगुणाश्च अनन्तपर्यायगुणास्तैः कलितानि संयुक्तानि सर्वाणि द्रव्याणि सर्वतो जानाति पश्यतीति भावार्थः // 69 // लोक और अलोकको, तथा (अणंतपज्जायगुणकलिए) अनन्त पर्याय और अनन्त गुणोंसे संयुक्त सभी (मुत्तामुत्ते दव्वे) मूर्त और अमूर्त द्रव्योंको (जाणइ) जानता है और (पेच्छइ) देखता है। टीकार्थ-'जाणइ पेच्छइ' इत्यादि गाथाका टीकाकार मुनि अर्थ-व्याख्यान करते हैंसिद्ध परमात्मा युगपद् एक ही कालमें जानते और देखते हैं। प्रश्न--क्या जानते और देखते हैं ? उत्तर--'लोयालोयं सव्वं' लोक और अलोकका द्वन्द्व समासरूप लोकालोकको जानते और देखते हैं। प्रश्न-कैसे जानते-देखते हैं ? उत्तर-'करणकमरहियं' अर्थात् करण और क्रमसे रहित जानते और देखते हैं / जिसके द्वारा कार्य किया जावे उसे करण कहते हैं और अनुक्रमको क्रम कहते हैं। इन करण और क्रमसे रहित एक साथ जानते-देखते हैं। प्रश्न-पुनः किनको जानते-देखते हैं ? . उत्तर-'मुत्तामुत्ते दव्वे' अर्थात् मूर्त एक पुद्गल द्रव्यको, और संसारकी अपेक्षा मूर्त हो रहे जीवद्रव्यको भी, क्योंकि द्रव्याथिकनयसे जीव अमूर्त है। शेष धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य सर्वथा अमूर्त हैं, इन सबको जानते देखते हैं। प्रश्न-पुनः ये सब द्रव्य कैसे हैं ? उत्तर-'अणंतपज्जायगुणकलिए' अर्थात् अनन्त पर्यायोंसे और अनन्त गुणोंसे कलित या संयुक्त ये सब मूर्त और अमूर्त द्रव्य हैं। उन सब मूर्त और अमूर्त द्रव्योंको उनके अनन्त गुण और पर्यायसे संयुक्त एक साथ सिद्ध परमात्मा जानते और देखते हैं / यह इस गाथाका भावार्थ है // 69 / /
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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