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________________ 128 तत्त्वसार मुनिना / तद्यथा-घातिचतुष्के नष्टे सति घातिकर्मणां ज्ञानावरणादीनां चतुष्कं तस्मिन् विनष्टे सति कि फलं भवतीति ? 'उप्पज्जइ विमलकेवलं गाणं' ज्ञानं समुत्पद्यते प्रकटीभवति / कथम्भूतं तत् ? विमलकेवलं विगतानि विनष्टानि कर्माण्यविमलानि यस्मात्तद्विमलं निर्मलं निष्पापं केवलं सकलमखण्डं विमलकेवलम् / पुनरपि किंविशिष्टम् ? 'लोयालोयपयासं' लोकालोकप्रकाशकम। 'लोक वर्शने' लोक्यन्ते यन्ते जीवादयः पदार्या यस्मिन्नसौ लोकः तस्मात्प. रोऽलोकः, तयोः प्रकाशकं लोकालोकप्रकाशकम् / पुनश्च कथम्भूतम् ? 'कालत्तयजाणगं' कालअयज्ञायकम्, अतीतवर्तमानानागतानां कालानां त्रयं जानातीति कालत्रयज्ञायकम् / पुनश्च किम्भूतम् ? परमम्, परा उत्कृष्टा मा लक्ष्मीः समवशरणादियंत्र तत्परमं सर्वोत्कृष्टं वा। तदेवंविधं ज्ञानमेव भावनीयं भव्यजनैरिति भावार्थः॥६६॥ इति तत्त्वसारविस्तारावतारेऽत्यासन्नभव्यजनानन्दकरे भट्टारकधीकमलकीतिदेव-विरचिते कायस्थमाथुरान्वयशिरोमणिभूतभव्यवरपुण्डरीकामरसिंहमानसारविन्दविनकरे धर्मध्यानपरम्परयाऽवाप्तशुक्लध्यानोवकेवलज्ञानफलवर्णनं नाम पञ्चमं पर्व // 5 // प्रश्न-क्या फल प्राप्त होता है ? उत्तर-'उप्पज्जइ विमलकेवलं णाणं' अर्थात् विमल केवलज्ञान उत्पन्न होता है / विगत या विनष्ट हो गये हैं अविमल-मलिन कर्म जिसमेंसे ऐसा विमल, निर्मल, निष्पाप और अखण्ड केवलज्ञान उत्पन्न होता है। प्रश्न-पुनरपि वह कैसी विशेषतावाला है ? उत्तर-'लोयालोयप्पयासं' अर्थात् लोक और अलोकका प्रकाशक है / 'लोक' धातु देखनेके अर्थमें प्रयुक्त होती है। जितने आकाशमें जीवादि पदार्थ अवलोकन किये जाते हैं-दिखाई देते हैं, उसे लोक कहते हैं। उससे परे जो आकाश है, जहां कि जीवादि पदार्थ नहीं दिखाई देते हैं, उसे अलोक कहते हैं। ऐसे लोक और अलोकका वह प्रकाशक है। प्रश्न-पुनः वह केवलज्ञान कैसा है ? उत्तर-'कालत्तयजाणगं' अर्थात् अतीत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालोंको जानता है। प्रश्न-और फिर वह कैसा है ? __-- उत्तर-परम है, अर्थात् पर-उत्कृष्ट, मा--लक्ष्मी समवशरणादिरूप जिसमें पाई जावे, उसे परम या सर्वोत्कृष्ट कहते हैं। इस प्रकारका परम निर्मल केवलज्ञान ही भव्यजनोंको निरन्तर भावना करनेके योग्य है / यह इस गाथाका भावार्थ है // 66 // ___ इस प्रकार अति निकट भव्यजनोंको आनन्दकारक, भट्टारक श्री कमलकीतिदेव-विरचित, कायस्थ-माथुरान्वय-शिरोमणिभूत, भव्यवरपुण्डरीक अमरसिंहके मातस-कमलको दिनकरके समान विकसित करनेवाले इस तत्त्वसारके विस्तारावतारमें धर्मध्यानसे परम्परया प्राप्त होनेवाले शुक्लध्यानद्वारा केवलज्ञानरूप फलका वर्णन करनेवाला पांचवाँ पर्व समाप्त हुआ / / 5 / /
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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