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________________ तत्त्वसार 127 गलितमाहात्म्यं गलितम् नष्टं माहात्म्यं महिमा यस्य तद / बाटन्तिमाह-'तह णिहय मोहराए' तथा मोहराजे निहते विनाशिते / केन? ज्ञानखङ्गण / किं भवति ? गलन्ति नाशं गच्छन्ति / कानि ? निःशेषघातीनि निःशेषाणि समस्तानि च तानि घातिकर्माणि, तानीति ज्ञात्वा परवस्त्वभिलाषरूपो मोहस्त्याज्यो भवति तत्त्वविद्भिः पुरुषैरिति भावार्थः // 65 // अथ घातिकर्मचतुष्टये नष्टे सति कि फलं भवतीति प्रतिपादयन्ति श्रीदेवसेनदेवाःमूलगाथा-घाइचउक्के पट्टे उप्पज्जइ विमलकेवलं णाणं / . लोयालोयपयासं कालत्तयजाणगं परमं // 66 // संस्कृतच्छाया-घातिचतुष्के नष्टे उत्पद्यते विमलकेवलज्ञानम् / . लोकालोकप्रकाशकं कालत्रयज्ञायकं परमम् // 66 // टीका-'घाइचंउक्के गद्रे इत्यादि, पवखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते टीकाकृता आर्ग कहें हैं-घातियाचतुष्टय नष्ट होत संत केवलज्ञान प्राप्त होय है भा० व०-घातियाचतुष्क ज्ञानावरण दर्शनावरण मोहनीय अन्तराय ये चार घातिया कर्म नष्ट होत संत मल-रहित केवलज्ञान उपजे है। कैसा है केवलज्ञान ? लोकालोक-प्रकाशक, अर कालत्रयका जाननेवाला परम उत्कृष्ट ऐसा है // 66 // प्रश्न-कैसी होती हुई नष्ट हो जाती है ? : उत्तर-गलित माहात्म्य होकर। गल गया है नष्ट हो गया है माहात्म्य, महिमा या जीतनेका उत्साह जिसका, उसे गलितमाहात्म्य कहते हैं। * अब इसका दार्टान्त कहते हैं-'तह णिहयमोहराए' अर्थात् उसी प्रकार मोहराजाके ज्ञानरूपी खड्गसे विनाश कर दिये जानेपर समस्त घातिकर्म स्वयं ही गल जाते हैं, अर्थात् नष्ट हो जाते हैं। . . भावार्थ-दशवें गुणस्थानमें मोहके सर्वथा क्षय हो जानेपर बारहवें गुणस्थानमें शेष रहे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये तीनों घातिया कर्म स्वयं ही क्षयको प्राप्त हो जाते हैं। ऐसा जानकर तत्त्ववेत्ता भव्यपुरुषोंको पर वस्तुकी अभिलाषारूप मोह सर्वथा त्याग देनेके योग्य है। यह इस गाथाका भावार्थ है // 65 // __ अब चारों घातिया कर्मोके नष्ट होनेपर क्या फल प्राप्त होता है, यह श्रीदेवसेनदेव बतलाते हैं अन्वयार्य-(घाइचउक्के गट्टे) चारों घातिया कर्मोके नष्ट होनेपर (लोयालोयपयासं) लोक और अलोकको प्रकाशित करनेवाला, (कालत्तय जाणगं) तीनों कालोंको जाननेवाला, (परम) परम (विमल) निर्मल (केवलणाणं) केवलज्ञान (उप्पज्जइ) उत्पन्न होता है। टोकार्थ-'घाइचउक्के गट्टे' इत्यादि गाथाके अर्थका टीकाकार मुनि व्याख्यान करते हैंज्ञानावरणादि चारों घातिया कर्मोके नष्ट होनेपर /
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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