________________ तत्वसार .123 योगी ? 'जाणइ णियअप्पाण' निजात्मानं स्वस्वरूपं जानात्यनुभवति / पुनः किं करोतीति ? 'पिच्छइ तं चेव सुविसुद्ध' सुविशुखं रागादिरहितं तमेवात्मानं पश्यत्यवलोकयातीत्यर्थः इति मत्वा शुद्धात्मस्वरूपे भावना कर्तव्या तज्ज्ञ व्यजनैरिति भावार्थः // 62 // अथ पुनरपि निश्चयध्यानारूढस्य योगिनो माहात्म्यं वर्शयतीति सूत्रकारःमूलगाथा—ण रमइ विसएसु मणो जोइस्सुवलद्धसुद्धतच्चस्स / .: एकीहवंइ णिरासो मरइ पुणो झाणसत्येण // 63 / / संस्कृतच्छाया-न रमते विषयेषु.मनो योगिन उपलब्बशुद्धतत्त्वस्य। एकीभवति निराशो म्रियते पुनः ध्यानशस्त्रेण // 63 // टीका-'ण रमइ विसएसु मणो' इत्यादि व्याख्यानं क्रियते टीकाकृता मुमिना-मनो भा० व०-योगीको मन है सो विषयनि विर्षे नांही रमै है / कैसा है योगी ? प्राप्त भया है शुद्धतत्त्व जाकें। बहुरि कैसा है ? एक होत है निराश-विषयनि विर्षे नष्ट भई आशा जाकैं। अथवा इस लोकविर्षे आशा, परलोक आशा, धनाशा, जीविताशा जाकें नष्ट भई सो निराशनिर्गत गई है दुराशा जाकें / पश्चात् कहा कर है ? ताका मन मरे है, विनाशकू प्राप्त होय है। काहे करि? ध्यान शस्त्रकरि // 63 // ....... प्रश्न-तो ऐसा वह योगी क्या करता है ? उत्तर-'जाणइ णिय अप्पाणं' अर्थात् अपनी आत्माके शुद्ध स्वरूपको जानता है और अनुभव करता है। प्रश्न-पुनः वह क्या करता है ? उत्तर- 'पिच्छइ तं चेव सुविसुद्ध' अर्थात् रागादि-रहित अपनी उसी सुविशुद्ध आत्माको देखता है, अवलोकन करता है। ऐसा जानकर आत्मज्ञ भव्यजनोंको शुद्ध आत्मस्वरूपमें भावना करनी चाहिए। यह इस गाथाका भावार्थ है // 62 // अब फिर भी सूत्रकार निश्चयध्यानमें आरूढ़ योगीका माहात्म्य दिखलाते हैं अन्वयार्थ-(उवलद्धसुद्धतच्चस्स) जिसने शुद्धतत्त्वको प्राप्त कर लिया है, ऐसे (जोइस्स) योगीका (मणो) मन (विसएस) इन्द्रियोंके विषयोंमें (ण रमह) नहीं रमता है। किन्त (णिरासो) विषयोंसे निराश होकर आत्मामें (एकीहवइ) एकमेव हो जाता है। (पुणो) पुनः (झाणसत्येण) ध्यानरूपी शस्त्रके द्वारा (मरइ) मरणको प्राप्त हो जाता है। टीकार्थ-'ण रमइ विसएसु मणो' इत्यादि गाथाका टीकाकार मुनि व्याख्यान करते हैंअनेक विकल्पात्मक मन नहीं रमता है, अर्थात् आसक्त नहीं होता है। .