________________ 122 तत्त्वसार अमालयानमाहात्म्यं प्रकटयन्तीति श्रीदेवसेनदेवाः- . मूलगाथा-अप्पसहावे थक्को जोई ण मुणेइ आगए विसए / - जाणइ णिय-अप्पाणं पिच्छइ तं चेव सुविसुद्धं // 62 // संस्कृतच्छाया-आत्मस्वभावे स्थितो योगी न मनुते आगतान् विषयान् / जानाति, निजात्मानं पश्यति तं चैव सुविशुद्धम् // 62 // टीका-'अप्पसहावे थक्को जोई' इत्यादि व्याकरोति टीकाकृन्मुनिः-आत्मनः स्वभावः स्वरूपमात्मस्वभावः, तस्मिन् स्थितः सन् / कोऽसौ ? योगी ध्यानी पुमान् / किं करोतीति ? 'ण मुणेइ आगए विसए' न मनुते जानाति नानुभवति / कान् ? विषयान् / कथम्भूतान् ? उदयमागतान् / यथा शिवकुमारो निजान्तःपुरमध्येऽपि स भावलिङ्गी भवन् षष्ठोपवासेन काञ्जिकाहारेण परग्रहादानीतेन स्थितः, तथाऽऽसन्नभव्येनान्येनापि भवितव्यम् / हि कि करोति स भा० व०-आत्मस्वभावविर्षे स्थित होत संत योगी उदयमें आये ऐसे जे विषयनिकू नाहीं जाने है, अर निज आत्माकू जाणे है, अर आत्मा ही कौं भले प्रकार विशुद्ध देखे हैं // 62 // अब श्री देवसेनदेव आत्म-ध्यानके माहात्म्यको प्रकट करते हैं अन्वयार्च-अप्पसहावे) आत्मस्वभावमें (थक्को) स्थित (जोई) योगी (आगए) उदयमें आये हुए (विसए) इन्द्रियोंके विषयोंको (ण मुणेइ) नहीं जानता है। किन्तु (णिय-अप्पाणं) अपनी आत्माको ही (जाणइ) जानता है (तं चेव) और उसी (सुविसुद्ध) अतिविशुद्ध आत्माको (पिच्छइ) देखता है। टीकार्य-'अप्पसहावे थक्को जोई' इत्यादि गाथाका. टीकाकार मुनि व्याख्यान करते हैं-आत्माका जो स्वभाव है, स्वरूप है, उस आत्मस्वभावमें स्थित कोई ध्यानी योगी पुरुष है। प्रश्न-वह क्या करता है ? उत्तर-'ण मुणेइ आगए विसए' अर्थात् नहीं जानता है, उनका अनुभव नहीं करता है। प्रश्न-किनका अनुभव नहीं करता है? उत्तर-इन्द्रियोंके विषयोंका अनुभव नहीं करता है। प्रश्न-कैसे विषयोंका अनुभव नहीं करता है ? उत्तर-उदयमें आये हुए विषयोंका अनुभव नहीं करता है। जैसे शिवकुमार नामका कोई राजा अपने अन्तःपुरमें रहता हुआ भी भावलिंगी होकर, पर-घरसे लाये गये कांजीके आहारको षष्ठोपवास (वेला-दो दिनके उपवास) की पारणामें ग्रहण करता हुआ स्थित था। उसी प्रकार निकट भव्यजीवको भी होना चाहिए।